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द्रुपद सुता-खण्ड-25 / रंजना वर्मा

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रिसता है रंग राग, खिलता अनंग अंग,
ऐसी रंगशाला में न, भ्रात आज जाइये।
जैसे हैं लजाये भीम, अर्जुन युधिष्ठिर ये,
कर्महीन हो के आप, ऐसे न लजाइये।
दौड़िये कन्हाई है परायी हुई जाती लाज,
साँवरे हे साज आज, युद्ध के सजाइये।
दानव दलन, दुराचारी के हनन हेतु,
एक बार प्रभु पाञ्चजन्य तो बजाइये।। 73।।

जगदीश द्वारिका के, ईश परमेश्वर हे,
भिन्न तुम से न कोई, घटना सुहानी है।
सर्वद्रष्टा सर्वज्ञानी, स्वाभिमानी श्याम तुम,
तुम को भला क्या आज, विपदा सुनानी है।
इतना ही कहती हूँ, आज हाथ जोड़ प्यारे,
कृष्णा तुम्हारी वही, पांडवों की रानी है।
औरों ने न मानी बात, भला हो तुम्हारी पर,
इस ने तुम्हारी बात, सदा से ही मानी है।। 74।।

सुन के पुकार मेरी, आज भी न आये यदि,
यह दुखियारी एक, यादबन जायेगी।
बरखा, घटा की घनी, झाड़ियों में तुम्हें श्याम,
द्रौपदी के आँसुओं की, झड़ी दिख जायेगी।
प्यास को बुझाने हित, जल भरी अंजली भी,
लाख यत्न से भी छू न, अधरों को पायेगी।
सच कहती हूँ भाई, टीस पछतावे की ये,
तुम को जनम भर, बड़ातड़पायेगी।। 75।।