द्रुपद सुता-खण्ड-35 / रंजना वर्मा
उंगली नहीं थी वह, इंगिति विधाता की थी,
मर्म-भेदिनी पुकार, का ही या प्रभाव था।
अंतर को भेद जल, उठी थी शिखा सी शक्ति,
जीतना सदा से शक्ति, पुंज का स्वभाव था।
साहस की पुतली ने, क्रोध भर देखा जब,
दहक उठे दृगों में, क्लान्ति का अभाव था।
रोष से चमक उठी, आशुतोष सी दमक,
चेहरे पे कालिका सा, छाया क्रूर भाव था।।103।।
सिंहवाहिनी के सिंह, सम्मुख टिकेगा कहाँ,
पापियों का उर सदा, पंछियों सा होता है।
कितना भी हो कठोर, क्रूर हो प्रपंची या कि,
पाप कर्म सदा उसे, सिन्धु में डुबोता है।
स्वेद बिंदुओं से तर, काँप उठा थर-थर,
दूषित दुशासन के, हाथ कम्प होता है।
मन प्राण से अधीर, खींच नहीं पाया चीर,
दीखता कठोर किन्तु, अंतर तो रोता है।। 104।।
कांति गयी कौरवों की, अबल दुशासन था,
कांपता सुयोधन था, कृत पाप भार से।
कर्ण के नयन भीत, हुई विधि विपरीत,
कांपती सभा थी सती,सत्त्व के प्रहार से।
जागा जब आत्म बल, शक्ति से हुई सबल,
खाण्डे सी चमक उठी, अपनी ही धार से।
पल में प्रलय कर, डालेगी असीम सृष्टि,
दृष्टि मेंदहकती अनोखी तलवार से।। 105।।