द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गई / सूरदास
राग देवगंधार
द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ दूरि गई ।
धाई जाति सबनि के आगैं, जे बृषभानु दईं ॥
घेरैं घिरतिं न तुम बिनु माधौ, मिलति न बेगि दईं ।
बिडरतिं फिरतिं सकल बन महियाँ, एकै एक भई ॥
छाँड़ि खेई सब दौरि जात हैं, बोलौं ज्यौ सिखईं ।
सूरदास-प्रभु-प्रेम समुझि, मुरली सुनि आइ गईं ॥
(सखा कहते हैं-) `कन्हाई ! वृक्ष पर चढ़कर पुकारते क्यों नहीं ? देखो, गायें दूर चली गयीं । जो (गायें) वृषभानु जी ने दी थीं, वे सबके आगे दौड़ी जा रही हैं । माधव! तुम्हारे बिना ये घेरकर लौटाने में नहीं आतीं । हा देव! ये तो शीघ्र मिलती ही नहीं । सम्पूर्ण वन में ये भड़कती भाग रही हैं । सभी एक-दूसरी से पृथक हो गयी हैं । अपने झुण्ड को छोड़कर सब दौड़ी जाती हैं; मेरे स्वामी का प्रेम समझकर सब वंशी की धवनि सुनते ही लौट आयीं ।