भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्रोपदी / प्रतिभा सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो फागुन!
तुमसे ही
सब रंग थे मेरे जीवन में
पर तुमने ही बेरंग कर दिया
एक-एक सांस को,
जो तुमसे जुड़ी थी
आदि से अंत तक।
तुम बता सकते हो?
प्रेम की पीड़ा क्या होती है?
क्या होता है जलना?
आह!
कुंतीपुत्र तुमने भी
कृष्ण संग रहकर
सीख लिया कृष्णा को छलना।
मुझे नहीं कुछ कहना है
धर्मराज युधिष्ठिर से
या पुत्रानुरक्त माँ कुंती से
मैंने प्रेम किया था तुमसे
तुमने मुझको जीता था
और मेरा भी जीवन अर्जुन
के स्वप्नों में बीता था।
पूरब से पश्चिम तक
उत्तर से दक्षिण तक
कितने नृप थे दास मेरे
कमललोचन के।
स्वर्गलोक से मृत्युलोक तक
शून्य संग पाताललोक तक
कौन ठहर पाई तरुणी
मेरे यश वैभव के आगे।
और रूप श्याम सम्मोहक
पर कितने अनुरक्त मरे।
किन्तु उसी यज्ञसेनी को
तुमने भिक्षा वस्तु समझकर
बटने दिया पँचखण्ड में।
तुम क्या जानो मन का वेग
जीवन बीत रहा मेरा
कितने अंतर्द्वंद में?
प्रेमातुर स्त्री के मन की
थाह लगा सकते हो फागुन?
स्त्री जिसके प्रेम में हो
सर्वस्व उसी को अर्पित करती
जैसे शिशु माँ की गोद में
विह्वल हो निश्चिंत समाता
वैसे ही स्त्री के चित्त में
कहाँ और दूजा रह जाता।
सच तो यह है
स्त्री यदि है चपल, बुद्धि की वाहक
तेज से अवगुंठित
तो पुरुष नहीं स्वीकार उसे कर पाता है।
और जहाँ तक सम्भव हो वह
उसको कुलटा सिद्ध ही करता
बीच सभा में लोक लाज तज
शील हरण करता है।
क्योंकि उसे पता है
चरित्र ही स्त्री पक्ष में सबसे निर्बल है
पुरुष सदा उपहास उड़ाकर
स्त्री विवेक, बुद्धि का
स्वयं को समझता रहा सबल है...
किन्तु सुनो!
मैं द्रोपदी, यज्ञसेनी
कृष्णा और सोरेन्ध्री भी हूँ
नहीं हूँ मैं साधारण स्त्री
जो घुट-घुटकर रोये
और पति मद के निमित्त
उसके ही चरणों में सोये।
यदि स्वाभिमान के हेतु
मैं कर सकती हूँ
निज पुत्रों को होम यज्ञ में
तो क्यों न जलाकर नाश मैं कर डालूं
भरतवंश कुरुश्रेष्ठ समूचे
कामी पुरुषों को क्रोध यज्ञ में।
इसलिए हे प्रियवर मैंने
महासंग्राम का लक्ष्य था साधा
और नहीं छोड़ा तुमको भी
पत्नी से प्रेम वंचना का
तुम भी भोगों दुःख आधा।
किन्तु अभी दुःख हुए न कम हैं
संधान नहीं पूरा होगा मेरा
जबतक एक-एक स्त्री के दुःख को
प्रत्येक पुरुष समझ ना ले
तथा वस्तु से ऊपर उठकर
उसको मनुष्य समझ ना ले
स्वीकृत ना करले उसका
शस्त्र-शास्त्र और तेज, ज्ञान।
तबतक हरयुग में समझो
होगा ऐसा ही संग्राम।
तब नाश भुवन का हो जाएगा
स्त्री की कर्कश वाणी से
नहीं कली-सी महकेगी वह
और मधुर हो कुहकेगी वह।
मुझ-सी यज्ञसेनी बनकर वह
जला ही देगी निज कुल को
जबजब आघात करोगे उसके
स्वाभिमान पर, गिरा ही देगी
लोक, लाज और त्याग, तपस्या
जैसे उपमानों के पुल को।
क्योंकि वह
पत्नी, पुत्री और माँ से पहले स्त्री है
और स्त्री में विच्छेद नहीं हो सकता है
सम्पूर्ण है वह
इस सृष्टि की सर्जक
सृजन ही उसके मूल में है
जिस स्थान पर उसके पाँव पड़े
फूल ही हरएक शूल में है।
उसको स्नेह दुलार करोगे
तो सृष्टि समूची महकेगी
अन्यथा गढोगे विशेष विधान
ज्वाला बनकर दहकेगी।