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द्वंद्व तिलोत्तमा / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास

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ऊपर से
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍देख रहा था मैं
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍अदृश्य रहकर
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍बहुत ऊपर से
असंख्य मरुक्षेत्र से भरपूर एक महा-पृथ्वी
प्रत्येक क्षेत्र पर
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍दो-दो
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍प्रतिस्पर्धी

मध्य-सूर्य का समय

पिस्तौल सजाकर
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍मापते-मापते
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍जितने क़दम जाना चाहिए
‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍गए
एकाएक घूमकर ट्रिगर दबाए दोनों
कोई भी
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍शहीद नहीं हुआ
गले में आ कर
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍पड़ी हुई माला के भार से
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍उभय अप्रतिभ हो उठे

गुलाब और अड़हुल, करवी और रक्त-कमल

विस्तृति के
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍ईशान कोने से
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍कुछ नीलिमा गिरी
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍गन्धर्वी के उत्तरीय जैसा
आग्नेय कोने से कुछ गुनगुने गुलाबी आलोक गिरे
धीमे-धीमे
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍वायु कोने से
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍कुछ मन्द पवन
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍कुछ सीकरें

मरुक्षेत्र के
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍धूलकण सारे
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍धीरे-धीरे
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍चल-प्रचल हुए
नाना रंगों के
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍अविर-चूर्ण की तरह
उठे और उड़े
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍परस्पर जड़ित हुए
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍'नारीशरीरम्'

ऊपर से
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍सबसे ऊपर से
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍शायद सुदूर स्वर्ग से
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍मृदु-मृदु दुन्दुभिनाद सुनाई दिया
दूब और रोमकूपों में
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍सिहरन हुई सभी के

प्रत्येक
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍मरुक्षेत्र में
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍एक-एक सुन्द
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍एक-एक उपसुन्द
प्रत्येक मरुक्षेत्र में दो-दो तिलोत्तमा
सुन्द की गोद में उपसुन्द की गोद में

विमूढ़पन
अपसरित होने की यातना में मैंने देखा
‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍सारी गोलियाँ
‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ मुझे ही लगी थीं

मैं जैसे परास्त प्रयात-प्राय,
लहूलुहान आत्मा से मेरी
‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍ ‍‍‍‍‍‍ ‍‍ अन्तर्हिता हो गई थी ईश्वरी ।

मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास