द्वंद्व तिलोत्तमा / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास
ऊपर से
देख रहा था मैं
अदृश्य रहकर
बहुत ऊपर से
असंख्य मरुक्षेत्र से भरपूर एक महा-पृथ्वी
प्रत्येक क्षेत्र पर
दो-दो
प्रतिस्पर्धी
मध्य-सूर्य का समय
पिस्तौल सजाकर
एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए
मापते-मापते
जितने क़दम जाना चाहिए
गए
एकाएक घूमकर ट्रिगर दबाए दोनों
कोई भी
शहीद नहीं हुआ
गले में आ कर
पड़ी हुई माला के भार से
उभय अप्रतिभ हो उठे
गुलाब और अड़हुल, करवी और रक्त-कमल
विस्तृति के
ईशान कोने से
कुछ नीलिमा गिरी
गन्धर्वी के उत्तरीय जैसा
आग्नेय कोने से कुछ गुनगुने गुलाबी आलोक गिरे
धीमे-धीमे
वायु कोने से
कुछ मन्द पवन
कुछ सीकरें
मरुक्षेत्र के
धूलकण सारे
धीरे-धीरे
चल-प्रचल हुए
नाना रंगों के
अविर-चूर्ण की तरह
उठे और उड़े
परस्पर जड़ित हुए
'नारीशरीरम्'
ऊपर से
सबसे ऊपर से
शायद सुदूर स्वर्ग से
मृदु-मृदु दुन्दुभिनाद सुनाई दिया
दूब और रोमकूपों में
सिहरन हुई सभी के
प्रत्येक
मरुक्षेत्र में
एक-एक सुन्द
एक-एक उपसुन्द
प्रत्येक मरुक्षेत्र में दो-दो तिलोत्तमा
सुन्द की गोद में उपसुन्द की गोद में
विमूढ़पन
अपसरित होने की यातना में मैंने देखा
सारी गोलियाँ
मुझे ही लगी थीं
मैं जैसे परास्त प्रयात-प्राय,
लहूलुहान आत्मा से मेरी
अन्तर्हिता हो गई थी ईश्वरी ।
मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास