द्वंद कहाँ है / गीता शर्मा बित्थारिया
दूर देश से बह कर आयी
एक मीठी सी नदी
अनन्त विस्तार
सी बाहें फैलाए
करते हो उसका स्वागत
पर स्वीकारते नहीं
उसका पृथक अस्तित्व
कितनी नदियां
पी ली तुमने
पर खारे के खारे हो
इसीलिए शायद
अब तक प्यासे हो
तुम अटल उच्च शिखर
मही से महीधर
तुम्हें धारती धरा
क्यों रह जाती है
घाटी में
गूंजता हर बार
अंतरतम से
पुकारा गया
तुम्हारा नाम
टकरा कर तुमसे
लौट आता है बेबस
अहम भाव पाले हो
इसीलिए पाषाण सी
निष्ठुरता ओढ़े हुए हो
नभ सी ऊंचाई
बलिष्ठ तने स्कंध
सम्बल देते हो
लिपटा लेते हो
पुष्प वल्लरी की
लचकती देह
पर झुकते नहीं हो
देखते हो उसे
अकड़ कर
धरा पर पड़े
मौन साध लेते हो
इसीलिए यूं
अकेले ही
काठ की देह लिए
खड़े हो
तुम सूरज
वो पृथ्वी सी
घूम रही है
तुम्हारे ही चहुं ओर
और तुम
रीझे खीजे से
भेज रहे हो
गर्मी सर्दी सावन
इतना ताप लिए बैठे हो
इसीलिए
स्वयं के दर्प से
स्वयं ही
जला करते हो
तुम पुरुष हो तो
वो भी एक स्त्री
सृष्टि सृजन को
पूरक हैं अभिन्न
भिन्न हैं
पर सम है
फिर
संबंधों में
कमतर कौन
संबंध
सम के
अभाव में
रह जाते हैं
एक अनचाहा सा
बंधन
तुम सम ही
सम्मान
पर फिर
सम का
अभाव
मान तुम्हारा
अभिमान तुम्हारा
और उसके हिस्से
बस कर देते हो
सहज सुलभ
अप मान
धरा होना
उसकी हीनता
निजी नियति
समझ लेते हो
इसीलिए
भू स्वामी सा
अधिकार किए
बैठे हो
ये कोई
विधि का विधान
नहीं है
कि वो बस सहती जाए
तुम्हारा खारा पन
तुम्हारी अकड़
तुम्हारा ताप
तुम्हारा दर्प
तुम्हारा मौन प्रस्थान
ये व्यवस्था
तभी तक हैं
जब तक
पृथ्वी और स्त्री
अपनी धुरी से
हिली नहीं हैं
थोड़ा उसको तुम
अपना सा कर लो
थोड़े से तुम भी
हो जाओ उसके जैसे
तुम पाओगे उसकी मिठास
और वो तुम सा विस्तार
तुम पाओगे उसकी कोमलता
और वो तुम सा पौरुष बल
तुम पाओगे उसके साथ गहरा आधार
और वो पाएगी तुम सा अडिग विश्वास
तुम पाओगे उसके अनंत बसंत
और वो तुम सा प्रेमी प्रियतम
तुम पाओगे उसकी ममता वात्सल्य प्रेम
और वो भी जानेगी तुम सम बुद्धत्व का सौंदर्य
द्वंद कहां है
किसने रचे हैं ये
श्रेष्ठ हीन भाव
कृत्रिम छल प्रपंच
दोहरे बेढ़ंगे से मापदंड
परम पुरुष ने
परम प्रकृति संग
प्रेम पूरक बन
परस्पर
संवेदना
समरसता
संग साथ
हौले हौले से रचे हैं
सृष्टि के शाश्वत शिल्प
यही सत्य है
परम सत्य