द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - १
(१)
चाहे जो भी फसल उगा ले,
तू जलधार बहाता चल।
जिसका भी घर चमक उठे,
तू मुक्त प्रकाश लुटाता चल।
रोक नहीं अपने अन्तर का
वेग किसी आशंका से,
मन में उठें भाव जो, उनको
गीत बना कर गाता चल।
(२)
तुझे फिक्र क्या, खेती को
प्रस्तुत है कौन किसान नहीं?
जोत चुका है कौन खेत?
किसको मौसम का ध्यान नहीं?
कौन समेटेगा, किसके
खेतों से जल बह जाएगा?
इस चिन्ता में पड़ा अगर
तो बाकी फिर ईमान नहीं।
(३)
तू जीवन का कंठ, भंग
इसका कोई उत्साह न कर,
रोक नहीं आवेग प्राण के,
सँभल-सँभल कर आह न कर।
उठने दे हुंकार हृदय से,
जैसे वह उठना चाहे;
किसका, कहाँ वक्ष फटता है,
तू इसकी परवाह न कर।
(४)
हम पर्वत पर की पुकार हैं,
वे घाटी के वासी हैं;
वन में ही वे गृही और
हम गृह में भी संन्यासी हैं।
वे लेते कर बन्द खिड़कियाँ
डर कर तेज हवाओं से;
झंझाओं में पंख खोल
उड़ने के हम अभ्यासी हैं।