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द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ११

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(८९)
हर साँझ एक वेदना नई,
हर भोर सवाल नया देखा;
दो घड़ी नहीं आराम कहीं,
मैंने घर-घर जा-जा देखा।
जो दवा मिली पीड़ाओं को,
उसमें भी कोई पीर नई;
मत पूछ कि तेरी महफिल में
मालिक, मैंने क्या-क्या देखा।

(९०)
जिनमें बाकी ईमान, अभी
वे भटक रहे वीरानों में,
दे रहे सत्य की जाँच
आखिरी दमतक रेगिस्तानों में।
ज्ञानी वह जो हर कदम धरे
बचकर तप की चिनगारी से,
जिनको मस्तक का मोह नहीं,
उनकी गिनती नादानों में।

(९१)
मैंने देखा आबाद उन्हें
जो साथ जीस्त के जलते थे,
मंजिलें मिलीं उन वीरों को
जो अंगारों पर चलते थे।
सच मान, प्रेम की दुनिया में
थी मौत नहीं, विश्राम नहीं,
सूरज जो डूबे इधर कभी,
तो जाकर उधर निकलते थे।

(९२)
तुम भीख माँगने जब आये,
धरती की छाती डोल उठी,
क्या लेकर आऊँ पास? निःस्व
अभिलाषा कर कल्लोल उठी।
कूदूँ ज्वाला के अंक - बीच,
बलिदान पूर्ण कर लूँ जबतक,
"मत रँगो रक्त से मुझे", बिहँस
तसवीर तुम्हारी बोल उठी।

(९३)
अब साँझ हुई, किरणें समेट
दिनमान छोड़ संसार चला,
वह ज्योति तैरती ही जाती,
मैं डाँड़ चलाता हार चला।
"दो डाँड़ और दो डाँड़ लगा",
दो डाँड़ लगाता मैं आया,
दो डाँड़ लगी क्या नहीं? हाय,
जग की सीमा कर पार चला।

(९४)
छवि के चिन्तन में इन्द्रधनुष-सी
मन की विभा नवीन हुई,
श्लथ हुए प्राण के बन्ध, चेतना
रूप - जलधि में लीन हुई।
अन्तर का रंग उँड़ेल प्यार से
जब तूने मुझको देखा,
दृग में गीला सुख बिहँस उठा,
शबनम मेरी रंगीन हुई।

(९५)
पी चुके गरल का घूँट तीव्र,
हम स्वाद जीस्त का जान चुके,
तुम दुःख, शोक बन-बन आये,
हम बार-बार पहचान चुके।
खेलो नूतन कुछ खेल, देव!
दो चोट नई, कुछ दर्द नया,
यह व्यथा विरस निःस्वाद हुई,
हम सार भाग कर पान चुके।
 
(९६)
खोजते स्वप्न का रूप शून्य
में निरवलम्ब अविराम चलो,
बस की बस इतनी बात, पथिक!
लेते अरूप का नाम चलो।
जिनको न तटी से प्यार, उन्हें
अम्बर में कब आधार मिला?
यह कठिन साधना-भूमि, बन्धु!
मिट्टी को किये प्रणाम चलो।

(९७)
बाँसुरी विफल, यदि कूक-कूक
मरघट में जीवन ला न सकी,
सूखे तरु को पनपा न सकी,
मुर्दों को छेड़ जगा न सकी।
यौवन की वह मस्ती कैसी
जिसको अपना ही मोह सदा?
जो मौत देख ललचा न सकी,
दुनिया में आग लगा न सकी।

(९८)
पी ले विष का भी घूँट बहक,
तब मजा सुरा पीने का है,
तनकर बिजली का वार सहे,
यह गर्व नये सीने का है।
सिर की कीमत का भान हुआ,
तब त्याग कहाँ? बलिदान कहाँ?
गरदन इज्जत पर दिये फिरो,
तब मजा यहाँ जीने का है।

(९९)
धरती से व्याकुल आह उठी,
मैं दाह भूमि का सह न सका,
दिल पिघल-पिघल उमड़ा लेकिन,
आँसू बन-बनकर बह न सका।
है सोच मुझे दिन-रात यही,
क्या प्रभु को मुख दिखलाऊँगा?
जो कुछ कहने मैं आया था,
वह भेद किसी से कह न सका।

(१००)
रंगीन दलों पर जो कुछ था,
तस्वीर एक वह फानी थी,
लाली में छिपकर झाँक रही
असली दुनिया नूरानी थी।
मत पूछ फूल की पत्ती में
क्या था कि देख खामोश हुआ?
तूने समझा था मौन जिसे,
मेरे विस्मय की बानी थी।