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द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - १२

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(१०१)
चाँदनी बनाई, धूप रची,
भूतल पर व्योम विशाल रचा,
कहते हैं, ऊपर स्वर्ग कहीं,
नीचे कोई पाताल रचा।
दिल - जले देहियों को केवल
लीला कहकर सन्तोष नहीं;
ओ रचनेवाले! बता, हाय!
आखिर क्यों यह जंजाल रचा?

(१०२)
था अनस्तित्व सकता समेट
निज में क्या यह विस्तार नहीं?
भाया न किसे चिर-शून्य, बना
जिस दिन था यह संसार नहीं?
तू राग-मोह से दूर रहा,
फिर किसने यह उत्पात किया?
हम थे जिसमें, उस ज्योति याकि
तम से था किसको प्यार नहीं?

(१०३)
सम्पुटित कोष को चीर, बीज-
कण को किसने निर्वास दिया?
किसको न रुचा निर्वाण? मिटा
किसने तुरीय का वास दिया?
चिर-तृषावन्त कर दूर किया
जीवन का देकर शाप हमें,
जिसका न अन्त वह पन्थ, लक्ष्य--
सीमा-विहीन आकाश दिया।

(१०४)
क्या सृजन-तत्व की बात करें,
मिलता जिसका उद्देश नहीं?
क्या चलें? मिला जो पन्थ हमें
खुलता उसका निर्देश नहीं।
किससे अपनी फरियाद करें
मर-मर जी-जी चलने वाले?
गन्तव्य अलभ, जिससे होकर
जाते वह भी निज देश नहीं।

(१०५)
कितने आये जो शून्य - बीच
खोजते विफल आधार चले,
जब समझ नहीं पाया जग को,
कह असत् और निस्सार चले।
माया को छाया जान भुला,
पर, वे कैसे निश्चिंत चलें?
अगले जीवन की ओर लिये
सिर पर जो पिछला भार चले।

(१०६)
जो सृजन असत्, तो पूण्य-पाप
का श्वेत - नील बन्धन क्यों है?
स्वप्नों के मिथ्या - तन्तु - बीच
आबद्ध सत्य जीवन क्यों है?
हम स्वयं नित्य, निर्लिप्त अरे,
तो क्यों शुभ का उपदेश हमें?
किस चिन्त्य रूप का अन्वेषण?
यह आराधन-पूजन क्यों है?

(१०७)
यह भार जन्म का बड़ा कठिन,
कब उतरेगा, कुछ ज्ञात नहीं,
धर इसे कहीं विश्राम करें,
अपने बस की यह बात नहीं।
सिर चढ़ा भूत यह हाँक रहा,
हम ठहर नहीं पाये अबतक,
जिस मंजिल पर की शाम, वहाँ
करने को रुके प्रभात नहीं।

(१०८)
हर घड़ी प्यास, हर रोज जलन,
मिट्टी में थी यह आग कहाँ?
हमसे पहले था दुखी कौन?
था अमिट व्यथा का राग कहाँ?
लो जन्म; खोजते मरो विफल;
फिर जन्म; हाय, क्या लाचारी!
हम दौड़ रहे जिस ओर सतत,
वह अव्यय अमिय-तड़ाग कहाँ?

(१०९)
गत हुए अमित कल्पान्त, सृष्टि
पर, हुई सभी आबाद नहीं,
दिन से न दाह का लोप हुआ,
निशि ने छोड़ा अवसाद नहीं।
बरसी न आज तक वृष्टि जिसे
पीकर मानव की प्यास बुझे
हम भली भाँति यह जान चुके
तेरी दुनिया में स्वाद नहीं।

(११०)
हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़े, दृष्टि-पथ
से छिपता आलोक गया,
सीखा ज्यों-ज्यों नव ज्ञान, हमें
मिलता त्यों-त्यों नव शोक गया।
हाँ, जिसे प्रेम हम कहते हैं,
उसका भी मोल पड़ा देना,
जब मिली संगिनी, अदन गया,
कर से विरागमय लोक गया।

(१११)
भू पर उतरे जिस रोज, धरी
पहिले से ही जंजीर मिली,
परिचय न द्वन्द्व से था, लेकिन,
धरती पर संचित पीर मिली।
जब हार दुखों से भाग चले,
तबतक सत्पथ का लोप हुआ,
जिसपर भूले सौ लोग गये,
सम्मुख वह भ्रान्त लकीर मिली।

(११२)
नव-नव दुख की ज्वाला कराल,
जलता अबोध संसार रहे,
हर घड़ी सृष्टि के बीच गूँजता
भीषण हाहाकार रहे।
कर नमन तुझे किस आशा में
हम दुःख-शोक चुपचाप सहें?
मालिक कहने को तुझे हाय,
क्यों दुखी जीव लाचार रहे?

(११३)
भेजा किसने? क्यों? कहाँ?
भेद अबतक न क्षुद्र यह जान सका।
युग-युग का मैं यह पथिक श्रान्त
अपने को अबतक पा न सका।
यह अगम सिन्धु की राह, और
दिन ढला, हाय! फिर शाम हुई;
किस कूल लगाऊँ नाव? घाट
अपना न अभी पहचान सका।

(११४)
हम फूल-फूल में झाँक थके,
तुम उड़ते फिरे बयारों में,
हमने पलकें कीं बन्द, छिटक
तुम हँसने लगे सितारों में।
रोकर खोली जब आँख, तुम्हीं-
सा आँसू में कुछ दीख पड़ा,
उँगली छूने को बढ़ी, तभी
तुम छिपे ढुलक नीहारों में।

(११५)
तिल-तिलकर हम जल चुके,
विरह की तीव्र आँच कुछ मन्द करो,
सहने की अब सामर्थ्य नहीं,
लीला - प्रसार यह बन्द करो।
चित्रित भ्रम-जाल समेट धरो,
हम खेल खेलते हार चुके,
निर्वाषित करो प्रदीप, शून्य में
एक तुम्हीं आनन्द करो।