द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - २
(५)
जब - तब मैं सोचता कि क्यों
छन्दों के जाल बिछाता हूँ,
सुनता भी कोई कि शून्य में
मैं झंझा - सा गाता हूँ।
आयेगा वह कभी पियासे
गीतों को शीतल करने,
जीवन के सपने बिखेर कर
जिसका पन्थ सजाता हूँ?
(६)
रोक हॄदय में उसे, अतल से
मेघ उठा जो आता है।
घिरती है जो सुधा, बोलकर
तू क्यों उसे गँवाता है?
कलम उठा मत दौड़ प्राण के
कंपन पर प्रत्येक घड़ी।
नहीं जानता, गीत लेख
बनते-बनते मर जाता है?
(७)
छिप कर मन में बैठ और
सुन तो नीरव झंकारो को।
अन्तर्नभ पर देख, ज्योति में
छिटके हुए सितारों को।
बड़े भाग्य से ये खिलते हैं
कभी चेतना के वन में।
यों बिखेरता मत चल सड़कों
पर अनमोल विचारों को।
(८)
तू जो कहना चाह रहा,
वह भेद कौन जन जानेगा?
कौन तुझे तेरी आँखों से
बन्धु! यहाँ पहचानेगा?
जैसा तू, वैसे ही तो
ये सभी दिखाई पड़ते हैं;
तू इन सबसे भिन्न ज्योति है,
कौन बात यह मानेगा?
(९)
जादू की ओढ़नी ओढ़ जो
परी प्राण में जागी है;
उसकी सुन्दरता के आगे
क्या यह कीर्ति अभागी है?
पचा सकेगा नहीं स्वाद क्या
इस रहस्य का भी मन में?
तब तो तू, सत्य ही, अभी तक
भी अपूर्ण अनुरागी है।
(१०)
बहुत चला तू केन्द्र छोड़ कर
दूर स्वयं से जाने को;
अब तो कुछ दिन पन्थ मोड़
पन्थी! अपने को पाने को।
जला आग कोई जिससे तू
स्वयं ज्योति साकार बने,
दर्द बसाना भी यह क्या
गीतों का ताप बढ़ाने को!
(११)
कौन वीर है, एक बार व्रत
लेकर कभी न डोलेगा?
कौन संयमी है, रस पीकर
स्वाद नहीं फिर बोलेगा?
यों तो फूल सभी पाते हैं,
पायेगा फल, किन्तु, वही,
मन में जन्मे हुए वृक्ष का
भेद नहीं जो खोलेगा।