द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ४
(२५)
मैं रोता था हाय, विश्व
हिमकण की करुण कहानी है।
सुन्दरता जलती मरघट में,
मिटती यहाँ जवानी है।
पर, बोला कोई कि जरा
मोती की ओर निहारो तो।
दो दिन ही तो सही, किन्तु,
देखो कैसा यह पानी है!
(२६)
रूप, रूप, हाँ रूप, सुना था,
जगती है मधु की प्याली।
यहाँ सुधा मिलती अधरों में,
आँखों में मद की लाली।
उतराता ही नित रहता
यौवन रसधार - तरंगों में,
बरसाती मधुकण जीवन में
यहाँ सुन्दरी मतवाली।
(२७)
सो, देखा चाँदनी एक दिन
राज अमा पर छोड़ गई।
खिजाँ रोकता रहा लाख,
कोयल वन से मुँह मोड़ गई।
और आज क्यारी क्यों सूनी?
अरे, बता, किसने देखा?
गलबाँही डाले सुन्दरता
काल-संग किस ओर गई?
(२८)
कलिके, मैं चाहता तुम्हें
उतना जितना यह भ्रमर नहीं,
अरी, तटी की दूब, मधुर तू
उतनी जितना अधर नहीं;
किसलय, तू भी मधुर,
चन्द्रवदनी निशि, तू मादक रानी।
दुख है, इस आनन्द कुंज में
मैं ही केवल अमर नहीं।
(२९)
दूब-भरी इस शैल - तटी में
उषा विहँसती आयेगी,
युग - युग कली हँसेगी, युग - युग
कोयल गीत सुनायेगी,
घुल - मिल चन्द्र - किरण में
बरसेगी भू पर आनन्द - सुधा,
केवल मैं न रहूँगा, यह
मधु - धार उमड़ती जायेगी।
(३०)
बिछुड़े मित्र, छला मैत्री ने,
जग ने अगणित शाप दिये;
अश्रु पोंछ तू दूब-फूल से
मन बहलाती रही प्रिये!
भूलूँगा न प्रिया की चितवन,
मैत्री की शीतल छाया,
जाऊँगा जगती से, लेकिन,
तेरी भी तसवीर लिये।