द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ८
(६२)
कौन बड़ाई, चढ़े श्रृंग पर
अपना एक बोझ लेकर!
कौन बड़ाई, पार गये यदि
अपनी एक तरी खेकर?
अबुध-विज्ञ की माँ यह धरती
उसको तिलक लगाती है,
खुद भी चढ़े, साथ ले झुककर
गिरतों को बाँहें देकर।
(६३)
पत्थर ही पिघला न, कहो
करुणा की रही कहानी क्या?
टुकड़े दिल के हुए नहीं,
तब बहा दृगों से पानी क्या?
मस्ती क्या जिसको पाकर फिर
दुनिया की भी याद रही?
डरने लगी मरण से तो फिर
चढ़ती हुई जवानी क्या?
(६४)
नूर एक वह रहे तूर पर,
या काशी के द्वारों में;
ज्योति एक वह खिले चिता में,
या छिप रहे मजारों में।
बहतीं नहीं उमड़ कूलों से,
नदियों को कमजोर कहो;
ऐसे हम, दिल भी कैदी है
ईंटों की दीवारों में।
(६५)
किरणों के दिल चीर देख,
सबमें दिनमणि की लाली रे!
चाहे जितने फूल खिलें
पर, एक सभी का माली रे!
साँझ हुई, छा गई अचानक
पूरब में भी अँधियाली,
आती उषा, फैल जाती
पश्चिम में भी उजियाली रे!
(६६)
ठोकर मार फोड़ दे उसको
जिस बरतन में छेद रहे,
वह लंका जल जाय जहाँ
भाई - भाई में भेद रहे।
गजनी तोड़े सोमनाथ को,
काबे को दें फूँक शिवा,
जले कुराँ अरबी रेतों में,
सागर जा फिर वेद रहे।