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द्वन्द्व / अनुभूति गुप्ता

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गहराते विषाद में
शहर की इमारतें
सब मीनारें
डूब चुकी हैं
जीवन में उल्लास के
सुहावने पल नहीं
कहीं भी
चहलकदमी नहीं

घोर सन्नाटा
बाँहे पसारे बैठा है
अब कहीं भी
तारों का टिमटिमाना
दीपों का झिलमिलाना
कोयल का कूकना
झरनों का बहना नहीं होगा

बस भय से
डालियों का मूर्छित
होना होगा
पत्तों का थर-थर
काँपना होगा
चट्टानों का
चिटकना, टूटना, ढहना होगा

सागर में तैरता हुआ
प्रकाश-द्वीप नहीं होगा
मनुष्यता का
प्रदीपन नहीं होगा

होगा तो बस,
उतरी हुई सूरतों का रोना
टूटे हुए सपनों का ढोना
द्वन्द्व में फँसा हुआ
शहरी जीवन और
परिपक्व निर्जनता का भवन।