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द्वन्द्व / दीप्ति गुप्ता
Kavita Kosh से
कभी मैं धीर होती हूँ
कभी अधीर होती हूँ
कभी मैं डर में जाती हूँ
कभी निडर मैं होती हूँ
कभी खुशी से मरती हूँ
कभी मैं दुख में मरती हूँ
यह मेरी दुनिया है -
मैं उसमें जीती हूँ!
इन भावों में जीते - मरते
बीत गया है -लम्बा जीवन
शेष बचा जो, जीवन मेरा
करना चाहती उसमें चिन्तन
जन-जीवन का गहरा मंथन
कि,समझ सकूँ गहरे अर्थो को
जीवन की गहरी परतों को!