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द्वार-दरपन में / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
गॉंव जाने से
मुकरता है
हमारा मन
नेह की जड़
काटती
रेखा विभाजन की
प्यार घर का
बाँटती
दीवार ऑंगन की
द्वार-दरपन में
झलकता
है परायापन
पाट चकिया सा
हुआ है
गॉंव का मुखिया
और पिसने
के लिए
तैयार है सुखिया
सूखकर कॉंटा
हुआ है झोपड़ी का तन
हम हुए हैं
डाल से
चूके हुए लंगूर
है नियति
जलना धधकना
मन हुआ तंदूर
मारती है
पीठ पर
सुधिया निरन्तर घन