भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्वार उसके मैं आया / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / प्रयाग शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

द्वार उसके मैं आया, मैंने द्वार खटखटाया ।

मैंने साँकल बजाई, मैंने उसको पुकारा,
अन्धकार में ।
बीते-बीते प्रहर, वो आया नहीं पर,
अरे, द्वार में ।।

भेंट हुई न हुई ।
भले जाऊँ मैं चला ।
लौट जाऊँ हार मैं,
जाऊँ दूर-पार मैं ।
 
रहे, रहे ये लिखत,
छोड़ जाऊँ इसे मैं —
"अरे, आया था मैं तेरे द्वार में ।"

मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल