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द्वार पर आया भिखारी / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
सखी, सुनना
कह रहा क्या
द्वार पर आया भिखारी
बड़ा ज़िद्दी
कई दिन से आ रहा है
कोई गाना अटपटा-सा
गा रहा है
देह पर है
भस्मि धारे
बैल की उसकी सवारी
तीसरी जो आँख उसकी
घूरती है
देह का यह दान
सजनी, माँगती है
क्या बताएँ
हो रहा है
साँस का भी बोझ भारी
सुना है यह
जब कभी यह नाचता है
सृष्टि का आधार पूरा
काँपता है
यह हलाहल
पी चुका है
नाम है इसका पुरारी