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द्वार पर प्रेम / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
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तुम्हें प्यार करने की चाहत
प्रज्वलित रहती
हर वक्त हृदय में
अलौकिक अग्नि की तरह
कैसे कहूँ
कहाँ से लाऊँ शब्द
क्या समझ पाओगी
इस भावना को?
काँपते रहते हैं विचार
बस पानी की तरह
तुम्हारे अंदर-बाहर से
गुजर जाना चाहता हू
बस हवा की तरह
तुम्हें अंदर-बाहर से
हिला देना चाहता हू
झूमो-झूमो
आनंद से
बजो अनहद नाद
बारिश की बँूदों से
सिर से पाँव तक
निश्चित ही, मेरी चाहत
तुम्हारी सहमति के बीच अटकी है
क्या तुम चाहती हो ऐसा कुछ?
नहीं जानता
ठिठका हँू इसलिए तुम्हारे द्वार
खटखटा रहा
तुम्हारे हृदय के किवाड़
खोलो तो अंदर आऊँ
झकझोर दूँ तुम्हें
अपने प्यार से।