भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

द्वार रब के आज फिर कोई दुहाई दे रहा / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

द्वार रब के आज फिर कोई दुहाई दे रहा
दूर मंदिर में बजा घण्टा सुनाई दे रहा

आस्था हो या न हो हैं बन्दगी सब कर रहे
शांति सुख का दान इस मे ही दिखाई दे रहा

बाद बरसों आज है दिल को मिला मेरे सुकूँ
है इसी से आज वो खुद को बधाई दे रहा

बेटियों को कोख में रखिये जनम भी दीजिये
है इसी ख़ातिर खुदा बहनों को भाई दे रहा

सर्दियों में ठंढ से गुजरे नहीं मुफ़लिस कोई
रब सभी को प्यार ममता की रजाई दे रहा

रँग गया जो आ जहां में साँवरे के रंग में
सांवरा संसार में अघ से रिहाई दे रहा

है मिला संस्कार जिसको धन्य है वो पुत्र भी
पा दुआ माँ बाप की अच्छी कमाई दे रहा