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द्वितीय सर्ग (खङ्ग-दान) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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स्वयं नहीं आती स्वतंत्रता उसे छीन कर लाते
धोते चरण रुधिर से फिर हृदयासन पर बिठलाते

बीजापुर से बंगलोर
आज्ञा थी पूज्य पिता की
यात्रा में विश्राम तनिक ज्यों
यति गति में कविता की

अथवा कारण अन्य धन्य
भावों से जो प्रेरित था
या कोई कर्त्तव्य जो कि युग-
धड़कन से परिचित था

या कोई अनुराग कि जिसका
नाम न जग ने जाना
या कोई आशय असुगम था
जिसका परिचय पाना

साथ शिवा के जीजाबाई
दादोजी अनुयायी
तीनों ही संकल्प बद्ध
व्रत-बद्ध और विषपायी

जीजाबाई ने अपूर्व सुख
बीजापुर में पाया
बार-बार मन हुआ प्रसादित
बार-बार भर आया

फिर दुहरा कर मन-ही-मन वह
गौरव-भरी कहानी
फिर कर याद कि शिवा-सूर्य की
ज्वाला थी लासानी

कहा प्रार्थना के स्वर में
”यह ज्वाला बढ़ती जाये
शैल-शैल पर, शिखर-शिखर पर
निर्भय चढ़ती जाये

शिवा मात्र मेरे मन की
ज्वाला है, यह न सही है
शिवा सुलगता हुआ अनल
तूफानी तेज वही है

युग का सुन आह्वान जिसे
करुणामय प्रभु ने भेजा
जब कि दमन से जन्मभूमि का
फटने लगा करेजा

वही शिवा की चाह, चाह जो
हृदय-हृदय मन-मन की
वही शिवा की माँग, माँग जो
व्यक्ति-व्यक्ति जन-जन की

जिसे प्राप्त कर जन-पद प्रमुदित
सुख है वही शिवा का
यही ध्येय ले शिवा बना
अभियानी रात्रि-दिवा का

था मेरा विश्वास तेज यह
पृथ्वी पर उतरेगा
जहाँ मरण का शून्य वहाँ
नव प्राणोल्लास भरेगा

ऋषियों ने सच कहा कि निश्चय
मुक्ति-दिवस है आता
जिसका यश गातीं कुमारियाँ
नभ आरती सजाता

स्वयं भवानी जान रही हैं
किसकी कौन परीक्षा
मेरी तो हर साँस वेदना
हर क्षण विकल प्रतीक्षा“

जीजाबाई के विचार
साधना-सहेजे कण थे
चिंतन-मनन, ध्यान-आराधन
प्रण के, वज्र-चरण थे

मन में निष्ठा तत्परता का
पुण्य-प्रखर आतप था
उनका जीवन लक्ष्य सिद्धि के
लिये भयानक तप था

भक्ति कि रहे हृदय भावन
जैसे गंगा का पानी
शक्ति कि जीवन बना रहे
सन्नद्ध और बलिदानी

क्रांति कि धो-धोकर चमका दे
जग को नूतन धारा
शांति कि बने स्वर्ग की उपमा
पृथ्वी मंडल सारा

युद्ध कि जब हो दास-दशा में
देश पड़ा बेचारा
बिना युद्ध के कहाँ मिला है
बंधन से छुटकारा

स्वयं नहीं आती स्वतंत्रता
उसे छीन कर लाते
धोते चरण रुधिर से फिर
हृदयासन पर बिठलाते

शासक हों जब क्रूर विदेशी
उच्छृंखल शासन हो
चारों ओर अनीति-अनय हो
चारों ओर दमन हो

आवश्यक हो जाता तब
जन-जन को झोर जगाना
आवश्यक हो जाता तब
आगे बढ़ शस्त्र उठाना

थे खड़े शिवाजी, दादोजी
देदीप्त एक, गंभीर एक
जीजाबाई थीं खड़ी
सुलग कर शांत हुई-सी आग बनी
थे खड़े शाहजी
शीत-ताप-वर्षा को साँसों में सम्हाल
मानो पहाड़ हो खड़ा
गड़ा कर दृष्टि
निष्पलक पृथ्वी पर

भावों का था न अभाव तनिक
उनके सम्मुख था प्रश्न कि
बोले प्रथम कौन
पति या कि पिता
या तेजस्वी जागीरदार
भाषा जब फूटी
हृदय पिता का ही बोला-
”कुछ परिचय सुना-सुनाया था
कुछ मैंने आँखों देख लिया
कुछ स्वयं कहो
किसका भविष्य तुम गढ़ते हो
अपना?
मेरा?
या केवल देख रहे सपना?“
माता की ओर निहार शिवा
पल रुके एक
फिर पूज्य पिता को माथ टेक
बोले
(सुप्रभ संकल्प बोलता जिस प्रकार)
”यदि वह मिट्टी ही नहीं बची
जिससे है फूटा उत्स हमारे जीवन का
अनगिनत पीढ़ियाँ लोट चुकी हैं जहाँ
और
जिसकी आलिंगन-छाया में
युग पर युग उतरे
अमृत-कोष दे हमें गये
जिसकी झंकारों के रस से हो सराबोर
हम स्वप्न देखते नये-नये
यदि देश हमारा बंधन में ही
पड़ा रहा, मृत बना रहा
दासत्व मिटा हम सके नहीं
भर सके न जीवन नया
स्फुरण, उन्मेष नया
संदेश नया भर सके न हम
नूतन हिलोर
यदि हम न लोक-मानस में उठा सके कोई
देशाभिमान की आग रही सोई-सोई
यदि हमने निष्फल किया न
पशु-बल के प्रकोप को घृणापूर्ण
यदि हमने रोका नहीं निरंकुश अनाचार
अपने स्वत्त्वों का हनन
अकारण अधिक्रमण
यदि हमने रोका नहीं द्रौपदी-असम्मान
जानकी-हरण

गृह-दाह
अभिग्रह
पद-मर्दन
प्रतिमा-खंडन
यदि हम न बन सके अग्नि,
वरुण, वृत्रारि, मित्र
तो कहाँ हमारा वर्तमान
कैसा भविष्य, किसका भविष्य
कैसा चरित्र
जब देश नहीं
क्या रहा शेष, संपत्ति कौन
जब धर्म नहीं तो
वांछनीय प्रतिपत्ति कौन
जब नहीं सुरक्षा,
शांति नहीं तब कहाँ स्नेह
जब नहीं प्रतिष्ठा
प्राण नहीं तब व्यर्थ देह
जननी ने सौंपा मुझे देश के गौरव को
मेरी इच्छा, मेरा विचार
लेकर तलवार बढूँ आगे
दूँ रण-चंडी को रक्त-भेंट
क्रम रुके न यह
ढोता न फिरूँ मैं जीवन को
जैसे ढोया करते शव को“

इस बीच शाहजी ने अन्वेषी आँखों से
जीजाबाई की मुख-चेष्टाओं को देखा
फिर-फिर देखा
फिर पढ़ डाला, पढ़ लेता ज्यों
मन के विचार को मनोविज्ञ कोई पल में
फिर बोले-
”भद्रे! तुम पवित्र वह वह्नि-शिखा
जो कहीं चेतना, कहीं प्रतिज्ञा, कहीं ऋचा
जो कहीं साधना स्वस्ति-स्वधा की, स्वाहा की
जो स्फूर्ति कहीं,
श्रद्धा, निष्ठा, निष्पत्ति कहीं
तुम ममता
लेकिन मनस्विता से भिन्न नहीं
तुम क्षमा
किंतु क्षमता भी हो, विक्लिन्न नहीं
तुम तपःपूत प्रेरणा कि जो चट्टानों को
कर चूर-चूर
पथ अपना आप बता लेती
तुम आग-धुली प्रेरणा कि जो

अपनी ज्वाला
अपनी लपटें तूफानी कण-कण में भरती
मुझसे ज्यादा तुमने बेटे को पहचाना
पहचान रही हो निश्चय कठिन समय को भी
दिन-रात गगन में
बादल-दल मडराते हैं
कुछ यहा गरजते
उपल वहाँ बरसाते हैं
नदियाँ बहती हैं
बड़े वेग से धारा भी
मझधार खौलती
सिकतिल शून्य किनारा भी
उफनाकर लहरें उठती हैं
फिर गिर पड़तीं
फिर उठती हैं
फिर झंझाओं से टकरातीं
मैं इन्हीं तरंगों का सहपंथी, साथी हूँ
मैं इन्हीं तरंगों में चलता जलयान लिये
मैं प्रतिपल इन्हीं तरंगों का स्वर सुनता हूँ
मैं इन्हीं तरंगों को पढ़ता हूँ, गुनता हूँ
तुम तो अनगढ़ को गढ़कर सुघड़ बनाती हो
भरती हो प्राणस्पंद

वर्ति उकसाती हो
भरती हो भाव, विचार
कल्पना अनबेधी
भरती प्रचंड विश्वास
कि पग आगे बढ़ते
हो रहा तुम्हारा शिल्प प्रमाणित निष्ठामयि!
जो मंगल-पथ
उस पर तुम बिना विराम चलो
तुम विदा माँगती थीं
न विदा देता था मैं
हर रोज टाल देता था कहकर और रुको
पर शुभ मुहूर्त आया है, आज विदा दूँगा
पूना को लौटो, साथ शिवा के कल्याणी।“

जीजाबाई ने पति के चरण छुए झुककर
दो बूँद अश्रु गिर पड़े ढुलक कर आँखों से
याचना, भरोसा, अभिलाषा, आशा, दृढ़ता
सब कुछ झंकृत था इन्हीं मूक दो बूँदों में

इंगित पर दादोजी कुछ आगे बढ़ आये
इस भाँति शाहजी ने संबोधित किया उन्हें-
”ले लो अपने सँग ध्वज-पट और पताकाएँ
राजाधिकार के सब उपकरणों को ले लो

बाहर अश्वारोही सेना, गज-घटा खड़ी
पादातिक सैन्य खड़े सज्जित उनको ले लो
ले लो अमात्य विख्यात प्रशिक्षक भी ले लो
अपनी इच्छा से निधि ले लो, आभूषण भी

तुम साथ शिवाजी के रहते, कर्तव्य बड़ा
तुम साथ शिवाजी के चलते, दायित्व बड़ा
तुम देख-रेख करते हो, यह है मान बड़ा
तुम नीति-विधान चलाते हो, ईमान बड़ा

शासन हो जितना कम उतना ही अच्छा है
जन-जन को प्रेम अधिक-से-अधिक दिये जाओ
शासन में बसता स्वार्थ नहीं, यह याद रहे
उत्सर्ग-भावना मूल-मंत्र है शासन का

माँगे स्वदेश की मिट्टी प्यास बुझाने को
तो आगे बढ़कर अपना रक्त बहा देना
यदि धर्म माँगे बैठे तो संशय किये बिना
मस्तक उतार कर रख देना बलिवेदी पर

हो राष्ट्र शस्त्रधारी, जनता हो महारथी
राष्ट्रोदय होता ब्रह्म क्षन्न के मिलने से
जब ब्रह्म बोल उठता समंत्र ‘स्वाहा! स्वाहा!
आहुतियाँ देता क्षत्र भक्ति से, निष्ठा से“

आदेश शाहजी का सुनकर उपदेश-भरा
दादाजी बन निर्धूम शिखा आश्वासन की
बद्धांजलि होकर खड़े रहे
सिर झुका-झुका
उत्तर देने को शब्द नहीं
पर भाव बहुत
भावों में नदियों का-सा
प्रखर बहाव बहुत
इतने प्रसन्न दुर्दान्त शाहजी
चकित सभी
आँखों में ऐसी चमक
न पहले कभी दिखी
अपने हाथों में की तलवार बढ़ा आगे
गंभीर स्वरों में कहा उन्होंने बेटे से-
”यह लो तलवार, इसे कहते
असि, खङ्ग, विजय
श्रीगर्भ, दुरासद, तीक्ष्णधार
कहते विशसन
कहते हैं इसको धर्मपाल भी पराक्रमी
निर्माण एक रक्षा के लिए अनोखा यह
अवदान शक्ति का,
यज्ञ-कुंड का तेज प्रखर

यह प्रथम कल्प की
एक भयानक घटना है
चल रहा हवन था ब्रह्मा का
अविराम, अथक
थी चाह लोक-रक्षा-हित कोई अस्त्र मिले
सहसा हवनी के अग्नि-ज्वाल का जाल हटा
निकला तेजःसंपन्न एक भीषण प्राणी
मानो निर्मल नभ में चंद्रमा निकल आया
नीलाभ कमल की कांति छा गई कण-कण में
वह प्रभा-पुंज प्राणी उछला
फिर खड़ा हुआ
पृथ्वी तिनके-सी लगी डोलने थर-थर-थर
घूर्णियाँ पड़ीं, लहरें उत्ताल लगीं उठने
सागर खौला बड़वानल के उच्छृवासों से
आँधियाँ चलीं, उल्काएँ अंबर से बरसीं
वृक्षों की डालें लगी टूट भू पर गिरने
संत्रस्त तृंग-गिरि-शृंग
घाटियाँ, दिशा-दिशा
सर्वत्र एक क्षण अशांति-सी फैल गई
वह भयकारी प्राणी झट अपना रूप बदल
बन गया खंग
मानो हो काल प्रलयकारी

लप-लप करता
मानो हो जिह्वा ज्वाला की
जाज्वल्यमान
मानो स्फुलिंगिनी क्रोधमयी
ब्रह्मा की प्रसन्नता का कोई अंत न था
शिव को पुकार कर कहा
‘शस्त्र यह आप गहें’
शंकर ने धारण किया शस्त्र वह और तुरत
अपने तन का विस्तार किया
भर गया शून्य
मस्तक सूरज को छूता था
थीं बरस रही
आँखों से लपटें लाल-लाल, नीली-नीली
उन्नत ललाट पर नेत्र तीसरा जलता-सा
सारा स्वरूप लगता था रुद्र विनाशक का

तुम पर है शिव की कृपा शिवाजी नाम सही
अतएवं खंग यह भेंट कर रहा पिता तुम्हें
इसका पानी है बड़ा तेज, तुम तेजोमय
पानीवाले पानी का मूल्य समझते हैं
जो पथनिर्देशक होता है
वह कण-कण को
आप्लावित करता
राष्ट्र-भावना से पावन
वह जन-मन को इस्पात बनाता
जनता में
दृढ़ता, आस्था, विश्वास, शूरता भरता है
पथ-दर्शक होते राष्ट्र-नयन
पथ दिखलाते
जनता होती है हाथ
पराक्रम करती है
है दोनों का उद्देश्य यही, उपयोग यही
बल घटे न
मानव-शक्ति राष्ट्र की पंगु न हो

सारी रामायण टिकी हुई वनवास पर
मैं अपने को छोड़ रहा इतिहास पर"