भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ/ रमई काका

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ,
मेहरेऊ याकै रहैं खड़ी।
मुँहु पौडर पोते उजर–उजर,
औ पहिरे सारी सुघर बड़ी।।
 
हम जाना मूरति माटी कै,
सो सारी पर जब हाथ धरा।
उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं,
हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा।।