धँसी है आँख मिट्टी में, निगाहें आसमानों में / विनय कुमार
धँसी है आँख मिट्टी में, निगाहें आसमानों में।
कहें जो शेर मत गिनिए कभी उनको सयानों में।
सम्हलकर खोलिए मासूम लफ़्ज़ो के लिफ़ाफ़ों को
सुना है कुछ फ़रिश्तें बम छुपाते हैं बयानों में।
नयी नींदें अजब हैं, एक भी सपना नहीं आता
जमा है सब पुराने ख़्वाब सरकारी खज़ाने में।
बता सकते थे जो पानी कहाँ से और क्यों आया,
बचानेवाले उनको छोड़ देते हैं खदानों में।
तुम्हारे ही लहू की चीख है, सुनते हो बस तुम ही
अमा तुम ठूँसते हो रूइयाँ क्यों मेरे कानों में।
कहाँ जाए ख़ुदा जो सिर्फ बच्चों की हँसी में है
कही पर षंख गुर्राए, कहीं धमकी अज़ानों में।
कहीं सब सच अमीरी की सुरंगों में न फंस जाएं
ख़बर आई है, सच बिकने लगे हैं कुछ दुकानों में।
मुझे इतना बता दो तुम, मिनी से क्या कहूं जाकर
कहीं दिखता नहीं हैं, काबुलीवाला पठानों में।