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धनकटनी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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दुपहरिया अगहन की
शीतल मन्द तपन की।
लेती मीठी झपकी,
पुरबइया की सनकी।

ऊबड़-खाबड़
खेतों की छाती पर
विपुल शालि-दल
स्वप्नों से भर अंचल
कंगालों के सम्बल
राशि-राशि फल
झुक-झुक पड़ते बोझल
संजीरा, गज केशर
मन सरिया, दुध काँड़र
बाँस बरेली, कान्हर
तुलसी फूल मनोहर
सबुजे, गेहुँए, साँवर
रूप धैर, चित कावर
वर्ण, गन्ध मधु अक्षर
पलकों मंे मृदु भर-भर
रंग-रंग के सुन्दर
जिन पर जीवन निर्भर
जिनसे तृप्ति निरन्तर
नवोल्लसित भूतल पर
ऊर्वर
लहराते रह-रहकर!

दुपहरिया अगहन की
शीतल हरिचन्दन की।
आते झोंके थम-थम,
धनखेतों से गम-गम।

मूढ़, असभ्य, उपेक्षित
पीड़ित, शोषित, लुण्ठित
बहरे, गूँगे, लँगड़े
बच्चे, बुड्ढे, तगड़े
ओढ़े जर्जर चिथड़े
तूल जलद-से उमड़े
मरभूखे दल-के-दल
पके शस्य-फल
शाद्वल-शाद्वल
काट रहे लो, चर-चर
डण्ठल से मुट्ठी-भर
ठहर-ठहर बढ़-बढ़ कर
हरित धान के अंचल
चंचल
कटते चर-चर
हँसिया से छप, छप, छप!

देखो, अन्ध विवर को
चूहे के उस घर को
मुसहर के दो बच्चे
कोमल वय के कच्चे
कद के छोटे-छोटे
मांसल, मोटे-मोटे
नटखट, भोले-भाले
मैले, काले-काले
भगवे पहने ढीले
काजर-से कजरी ले

कोड़-कोड़ खुरपी से
पूँछ पकड़ फुर्त्ती से
पटक-पटक ढेले पर
मृत चूहे ले लेकर
बाँध लिए पछुवे में
भगवे के ढकुवे में

खुरच-खुरच अन्दर से
चुनते तंग विवर से
विस्फारित अधकुतरे
मटमैले, धनकतरे

चूहे का रमसालन
नमकीला, मन भावन
और, मजे की निखरी
पके धान की खिचरी
मालिक की धनकटनी
खूब उड़ेगी चटनी

कूड़े करकट संकुल
बिल के कुतरे तंडुल
गन्दे, उ´्छ, अपावन
उदर-पूर्ति के साधन

अखिल धान के अम्बर
प्रियतर, शुचितर, सुखकर
हहर-हहरकर
कटते-छप-छप
हँसिया से चर-चर-चर!

दुपहरिया अगहन की,
शीतल मन्द तपन की।
लेती मीठी झपकी,
पुरबइया की सनकी!

(रचना-काल: जनवरी, 1942। ‘हंस’, फरवरी, 1942 में प्रकाशित।)