भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धन / मथुरा प्रसाद 'नवीन'
Kavita Kosh से
इहे हाल हो
धन जौर करै बाला के,
धन के खातिर
घोड़दौड़ करै बाला के
सीताराम सीताराम!
हे बबुआ, ई धन
जरै करै बाला
बन जा हो रावण
औउ कुंभ करन
छोडो ई लोभ के,
धन जमा होबऽ हो
गरीब के खून चोभ के
पराया के दुख
कोय नै जानऽ हो,
धन जमा करै बाला
अपने ले कुइयां खानऽ हो
देखऽ हा नै
बिड़ला अउ टाटा,
सबके
भीख मंगाबै के
ले लेलको हे साटा
ई जोंक के
खून पिअै के आदत पड़ गेलो हे
जेतना बड़का हो
सब गरीबहे के
ठोंठा पर चढ़ गेलो हे।