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धरणी धरा धीर जन, पूरण हो सब भूल / लक्ष्मीनाथ परमहंस

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धरणी धरा धीर जन, पूरण हो सब भूल
टरे ना टारे राह निज, जैसे पर्वत मूल॥

बाहर भीतर सबहिं को, प्राण वात संचार
लेत देत नहिं धरत कछु, संत सुगंधि विकार॥

नम सम साधु सुझाव नित, निर्मलता दिन राति
दुर्जन जन धन भवन कृत, सहि उपाधि बहु भांति॥

शीतलता जल तेज नहिं, शीतल ज्ञान सुजान
पाप हरत संसार को, दरश परश जल पान॥

कहीं प्रकट कहीं प्रकट नहीं, अग्नि साधु तिहु लोक
निज उपासक को हरत, त्रिविध ताप तम शोक॥

जन्म आदि षट भाव जग, होत रहत तन जात
जैसे निशि कर को कला, हानि वृद्धि दर साथ

जैसे दिनकर किरण जग, रहत ना विषय भुलाई
तैसे जोगी जोग पथ, शिष्य देत विलगाई

अति सनेह मति कोउ कर, किया अपनि पर होत
करि सनेह तरू नीर पर, मरि गए मूढ़ कपोत

ज्ञानी अजगर के सदृश, रहत सदा मन मांह
लघु भोजन कर वृहत्त वपु, नहिं लावत तन काह

जलधि संत को अंत नहीं, अगम अक्षोभ गंभीर
नहिं सूखत नहिं बढ़त है, धन पाई जिमि धीर

बरत रूप नर नारि के, अजीत धरत तेहि धाय
दीपक में जिमि जाय के, परत पतंग नशाय

भिक्षुक मधुकर के सदृश, सकल प्रज्ञ गृह जाई
अनु वृहत्त भोजन मिले, नहिं कछु क्रोध जनाय

यति नारि नहिं परस कै, कठपुतरि पद पाई
करि निसंगति मत्त गज, नाहक बाँधल जाय

सांझ सवेरे मांगि के, पंडित सोई जो खाय
सन सिन करि माछि मरै, मधुआ सम धन जाय

वन निवसे अरु तृण भखे, मृग अति परम सुजान
कस्तूरी गंध के कारणे, मृग सुत त्यागे प्राण

मीन जीभ रस वश भए, गए वंशी के साथ
व्यथा कहत इंद्री जीते, रसना किए ना हाथ

आशा सम नहिं दुख परम, सुख निराश सम नहिं
काटि दुराशा पिंगला, हर्ष भरै मन माहिं

बहुत परिग्रह ना करो, कर के कुररि नाशाय
तामस भोजन ना धसो, याति नर कहि जाय

बाल भाव में रहत जो, पंडित ताको नाम
लाभ हानि का सोच नहिं, पेट भरै सो काम

कलह होत बहु वास में, दोऊ में कछु रारि
शब्द होत नहिं एक तें, कंकण हाथ कुमारि

लै लावो सरकार इव, चित्त बुद्धि मन गात
खबरि पाय नहिं पीठ तन लश्कर नृप को जात

एकाचारि एक मत यति रहत पर गेह
लेकर शिक्षा सर्प के मुख छिपाय देत

मकरा माया ईश की ज्ञानी उपमा देत
सूत भमै भरि छाप के फेर समेटि लेत

शिक्षा वैसी ईंट की कहूँ सुनो तुम भूप
भजै जाहि जो भाव करि अंत धरै-सा रूप

लक्ष्मीपति दोहा रचि गुरु चौबीसी नाम
पढ़ै सुनै जो प्रेम करि ताके पूरण काम