भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती, समुंदर के लिए खोजता हूं अपनी आवाज़ / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती, समुंदर के लिए खोजता हूं अपनी आवाज़

सबसे ज़्यादा और सबसे अहं चीज़ों की तरह है
मेरे लिए ख़ुद के अस्तित्व से इंकार करना

मैं सिर्फ़ चीजं़ ख़ाली करता हूं
उनके बने अस्तित्व को निचोड़ता हूं

मेरे लिए ज़रूरी है ऐसे बने रहना
मैं उत्साहित हूं कि जो जिस स्थिति में है
वह एक ख़ाली मकान में
ज़रुरी और अपर्याप्त सामान के भरने जैसा है

मैं जहां रहता हूं
वह जगह नहीं है मेरी
मैं जिसे बनाता हूं
वह धरती है जो पैदल चलकर
प हूँचती है मेरे पास थकी हुई-सी
जिस पर बार-बार हल की फाल से
रोपता हूं कई तरह के बीज
जो कि मेरे नहीं हैं
मैं उन्हें देता हूं धरती की गोद
जिसका कोई नाम नहीं

मेरा अस्तित्व धरती का पतझर है
जो बार-बार बौराता है ऋतुओं में

मैं महज़ चंद कदमों से
समुंदर नहीं लांघना चाहता
यह मेरे ढंग को बदल देता है बेहिसाब तरीक़े से

मैं धरती, समुंदर के लिए
खोजता हूं अपनी आवाज़
इसके लिए मैं इंकार करता हूं
अपने ख़ाली हाथों से
जो कि उफनते हैं गर्म चट्टानों की तरह
मैं इनका नमक और शहद
रखता हूं अपनी ज़बान पर
किसी भी तरह के आकाश में
होने के बावजूद