धरती-अंबर उबलै छै / मुकेश कुमार यादव
सूरज आग उगलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।
गर्मी से बेहाल।
सब रो बुरा हाल।
आँख-मुँह लाल।
लागै छै, जंजाल।
जहाँ-तहाँ उछलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।
सूरज रो विकराल रूप।
धरती पर अकाल स्वरूप।
पानी रो अभाव।
पक्षी रो स्वभाव।
बाग-बगीचा सगरे।
गांव-शहर-डगरे।
भीषण लू नञ् उखलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।
नञ् जीवन में रंग भरै।
नञ् खुशी-उमंग भरै।
नञ् धरा रंग हरै-भरै।
लागै छै, वीरानी।
केना कहतै, सुहानी।
मौसम रो मनमानी।
सब कोय ते देखलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।
पहर दिन आराम करो।
आपनो कुछ नञ् काम करो।
बैठी सुबह-शाम करो।
गर्मी रो रोशन नाम करो।
ऐतना ते सब सीखलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।
चिड़ियाँ खोजै, आपनो खोता।
आरु खोजै, पानी रो सोता।
सुग्गा-मैना-मोर।
कम करै छै, शोर।
बंदर कम उछलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।
टप-टप-टप पसीना बहै।
सब रो हाथ पंखा रहै।
सत्तू-गुड़-आम-अचार।
पुदीना चटनी करै, व्यवहार।
बेल-लस्सी-पना।
बिलकुल नञ् मना।
बाहर आना-जाना।
बंद छै, रोजाना।
रोज लू कुछ कुचलै छै।
घरती-अंबर उबलै छै।