धरती और आकाश का मौन संवाद / पूनम चौधरी
जब स्त्री ने
चुना,
धरती होना,
तो उसने सीखा —
धारण करना।
वह बनी
हर बीज, हर पीड़ा, आशा-उपेक्षा —
हर गीत सहेजने वाली।
अपनी नमी में
उगाती रही समय।
और जब पुरुष
आकाश हुआ,
तो वह बना —
दूर, छिटका हुआ,
विस्तार में बसा,
पर कभी थमा नहीं।
वो शिखर था,
जहाँ इच्छाएँ दिशाहीन हो जाती थीं —
विस्तृत, किंतु
अनुत्तरित।
धरती ने सीखा —
स्थिरता में भी स्पंदन।
पत्तों के गिरने में भी
वह सुनती उनकी पीड़ा,
बढ़ती जड़ों का भय भी
वह जानती थी।
और
आकाश ने देखा
धरती के इस मौन को —
एक अनकहे आकर्षण से —
कभी गरज कर,
कभी चुप रहकर।
धरती ने नहीं माँगा
कि आकाश झुक आए
उसकी देह पर।
वह जानती थी —
प्रेम विराम नहीं,
प्रवाह है—
सहनशील,
अंतहीन।
आकाश भी समझता था
अपना सीमांकन।
धरती का स्पर्श
संभव नहीं —
इसलिए
क्रोध में की घनघोर बारिशें,
प्रेम में ओस बन
सहेजता रहा —
बूँद के रूप में
गिराता रहा आँसू।
धरती ने
हर रूप को अपनाया,
पी गई हर भाव,
रच दिए फूल,
कविताएँ उगाईं।
और आकाश —
हर फूल में
अपना प्रतिबिंब
देखने लगा।
उनका प्रेम
स्पर्श में नहीं,
विरह में था,
पीड़ा में था,
प्रार्थनाओं में था,
और
स्वीकृति में था।
एक ने सहा,
दूसरे ने बिखरा —
फिर भी दोनों
अपूर्ण होकर भी
पूर्ण रहे एक-दूसरे में।
जब संतानें हुईं —
तो वे मेघ बने,
हवाएँ बनीं,
सुगंध बनीं —
जो हर रोज़
धरती और आकाश के मध्य
बुनती रहीं सेतु।
और तब से —
हर स्त्री
थोड़ी धरती है —
सहेजने वाली, सहने वाली।
और हर पुरुष
थोड़ा आकाश —
आकर्षण में उलझा,
किंतु अनभिज्ञ,
उस स्थिरता से
जो उसे निरंतर थामे रहती है।
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