भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धरती का गीत / सुनीता शानू
Kavita Kosh से
धरती पर फैली है सरसों की धूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी ॥
फूट पड़े मिट्टी से सपनों के रंग।
नाच उठी सरसों भी गेहूं के संग।
मक्की के आटे में गूँधा विश्वास
वासंती रंगत से दमक उठे अंग।
धरती के बेटों की आन-बान भूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥
बाजरे की कलगी-सी नाच उठी देह।
आँखों में कौंध गया बिजली-सा नेह।
सोने की नथनी और भारी पाजेब-
छम-छम की लय पर तब थिरकेगा गेह।
धरती-सी गृहिणी की कामना अनूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥
धरती ने दे डाले अनगिन उपहार,
फिर भी मन रीता है पीर है अपार।
सूने हैं खेत और, खाली खलिहान-
प्रियतम के साथ बिना जग है निस्सार।
धरती की हूक उठी जल-रीते कूप-सी
धरती बन आई है नवरंगी रूपसी॥