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धरती का जीवन / धीरेन्द्र अस्थाना
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नदी के कूल में,
करती अठखेलियाँ;
जाने कहाँ लीन हो गईं
वो अल्हड़ उर्मियाँ!
पूनम के चाँद की
वो शीतल चांदनी
रात रानी की
मादक महक;
पपीहा का चिर
'पी कहाँ ' का स्वर,
न जाने कहाँ
विलीन हो गया!
सिक्के ढालने वाले
कल कारखानों का
कर्ण विदारक शोर;
और इनसे विसर्जित
विषैला रसायन;
जीवन को कर
अशांत और विषाक्त!
कर दिया रिक्त और
सिक्त निस्त्रा को;
धूमिल हो गयी धुएं से
वो चांदनी रातें और
उजड़ गये धरती का
श्रृंगार करने वाले;
उपवन और नभचर!
कितना हो गया परिवर्तित
इस धरती का जीवन!