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धरती के सिंगार / जगदीश पाठक 'मधुकर'

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धरती के देखॅ सोल्हो सिंगार हो संगतिया।
रिमझिम झड़िया में नहाय देहु मला-मली, केशॅ पानी मारै
सतरंगा फलेॅ के चुनरी, घासॅ के चोली पिन्ही,
घानी गेहुवी ओढ़नी लहकदार हो संगतिया
खजूरी, बबूली, चतरा, काटॅ के चिरनी लैके,
झाड़ै आपनॅ लामी लामी केश।
सूरूजॅ के ऐना देखी, केशरॅ के विन्दा साटै।
परागॅ से भरै शीखी के धार, हो संगतिया।
गांगी यमुनी चमचम घरॅ के झालर लागलॅ
करघनी विन्ध्याचल पहाड़
हीरा जड़लॅ हिमालय के मुकुट माथा पर धरी
सिन्धु, ब्रम्हपुत्र निर्मल हार, हो संगतिया
सतपतिया सायें सीमी, कोबी के टीका,
बीचे नीमी अंगुर के बीर।
कदीमा के टैंरा, गाजर, अनारॅ के दूल झुमका।
तरबूजा शीशफूल, खम्हरुआ के बेसर,
कदम-पान नेकलेश अनमोल।
केला नारंगी, अमरूदॅ के मोहनमाला।
सेव, आम कंठा चमकदार, हो संगतिया
परोलॅ क बांक, बाजूबन्द बरसिम्मा,
आलू बैगन भूडो लागलॅ कोर।
कैता के कंगना-बाला, करैला के छनबन
अजीरॅ के औगुंठो भड़कदार, हो संगतिया
गोड़ रंगलॅ सिम्मर फूलॅ से खजूरी के पैंजनी,
मुरगा फूल छल्ला पोरम् पोर
‘मधुकर’ टेढुआ कद्दू-बोड़ा के काढ़ा-छाड़ा
झमाझम धरती झमकदार, हो संगतिया।