धरती न बोल सकी / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
एक दिन
लहरों के गाँव में
हवाओं की ठाँव में
किनारों की छाँव में
धरती की कुंती के
पायल बंधे पाँव में
रुन् झुनुन् झुन् हुई
सूरज ने बाँध दिया
किरणों की डोर पर
पत्र एक प्यार का
एक फूल तोड़कर
धरती लजाई रही
कुंती शरमाई रही
छुम् छनन् छन् हुई
सूरज ने चोरी से
कुंती किशोरी की
गोरी-गोरी बँहियों को
काली-काली अलकों को
झुकी-झुकी पलकों को
छुआ भी, चूमा भी!
सन् सनन् सन् हुई
सोने के भौंरे ने बाँध लिया
मिट्टी की कलिका को
किरणों की बाँह में
गीतों की छाँह में
जवानी की राह में
गुन् गुनुन् गुन् हुई
एक दिन
सूरज के बेटे को
धरती की माता ने
छोड़ दिया धारे पर
मन के इशारे पर
धरती न बोल सकी
सूरज न बोल सका
अम्बर न डोल सका
बौनी-सी लाज से
अँधे समाज से
पत्थर की माता से
दुनिया के दाता से
गूँगे मातृत्व से
बहरी मर्यादा से
छिछले सतीत्व से
धरती न बोल सकी
घूँघट न खोल सकी