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धरती पर एक और धरती / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
धरती पर
एक और धरती,
आकाश पर
एक और आकाश,
यह राख का रंग, यह नुचा हुआ चेहरा
उफ ! कितना घिनौना रूप है !
और एक भीड़ है
जो इन दोनों को
और अपने बहुत कुछ को छोड़
एक दूसरी धरती के लिए
एक दूसरे आकाश के लिए
लाशें लाँघती,
खून के चकत्तों पर
आधे पाँव रखती है-
भागती है मगर
मरे सिपाहियों की जेबों में
बिस्कुट खोजना नहीं भूलती,
बदबू फेंकती ढ़ेरियों को कुरेद
जली रोटियों के टुकड़ो की खोज
नहीं छोड़ती,
आज धरती की हथेली में धान नहीं,
आकाश के कटोरे में दूध नहीं,
पानी नहीं, धूप नहीं,
नीचे जले बुझे कोयले हैं,
ऊपर धुआ है, सिर्फ धुआ
यह धरती यह आकाश
दोनो अपरिचित, कभी न देखे से !