धरती पर रोटी / कुमार कृष्ण
जब -जब आएगा दीवार पर दिसम्बर
तब-तब पुश्तैनी पगड़ी से बाहर आएंगी-
पिता की आंखें
आँसुओं के पाँव चल पड़ेंगे खेतों की ओर
जहाँ बो कर चले गए पिता सपनो का धान
पिता को ठंढ ने नहीं राजा की जिद ने मारा
पिता को मारा खेतों के प्यार ने
मारा बेरहम बाजार ने
पिता मरे सड़क पर उम्मीद के अलाव के पास
लड़ते-लड़ते मेरे पिता
पिता मंत्रों के साथ नहीं नारों के साथ गए
वे ले गए अपने साथ धरती का गुस्सा
साँझे चूल्हे पर पकती रोटी की खुशबू
धान की बालियाँ
ले गए सीने में आक्रोश की आग
सतलुज की मिठास, चिरसंचित अभिलाषाएँ
लोहे के हल पर उड़ कर गए चाँद तक
माँ कहती है पिता उगाएँगे चाँद पर धान
बोएँगे धरती की खुशबू
फिर एक दिन हम भी चले जाएँगे चाँद पर
पिता के पास
स्कूली किताबों के पन्ने पलटते हुए सोचता हूँ-
क्यों नहीं समझा मैंने पिता से खेतों का व्याकरण
क्यों नहीं समझी बीज की भाषा
माँ के पास बचा है सभी कुछ आधा-अधूरा
उसी से लिखनी होगी जीवन की किताब
सिलना होगा पुआल का बिस्तर
सोए हैं जहाँ पिता के सपने
निकालना होगा खेतों में छुपी नदी को
बची रहे धरती पर रोटी की खुशबू।