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धरती पे रश्के-माह से कमतर नहीं हूँ मैं / मयंक अवस्थी

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धरती पे रश्के-माह से कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इसलिये कि फ़लकपर नहीं हूँ मैं

यादों की बारिशों ने बताया है बारहा
मिट्टी के एक जिस्म से बेहतर नहीं हूँ मै

दरिया-ए-ग़म में बर्फ के तोदे की शक्ल में
मुद्दत से अपने क़द के बराबर नहीं हूँ मैं

उसका ख़याल उसकी ज़ुबाँ उसके तज़्किरे
उसके क़फ़स से आज भी बाहर नहीं हूँ मैं

हर आइने में उम्रे-रवाँ देखती रही
उस आइने की किर्च से बढ़कर नहीं हूँ मैं

पीता नही हूँ सिर्फ़ उगलता हूँ जहर मैं
उसके गले पड़ा हूँ पर शंकर नहीं हूँ मैं

पोरस से जीतने पे ये अहसास मिल गया
पोरस को जीत लूँ वो सिकन्दर नहीं हूँ मैं

जलने लगा है जिस्म तो जलने दे ऐ 'मयंक'
वैसे भी अपने जिस्म के दमपर नहीं हूँ मैं