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धरती बनाम स्त्री / सुरेन्द्र रघुवंशी

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पेड़ नहीं धरती के सिर से काटे जा रहे हैं
उसके हरे लम्बे और सघन बाल
उसका मुण्डन जारी है अनसुने करुण क्रन्दन के बीच

खनन नहीं धरती के सुन्दर शरीर पर
गिद्धों द्वारा नोंच-नोंचकर किए जा रहे
निरन्तर अनगिनित घावों से माँस निकाल-निकालकर
मिटाई जा रही है कभी न मिटने बाली स्वार्थी भूख
और हवस राक्षसी क्रूरता की हद तक

नदी नामक रगों से पानी नहीं
आधुनिक मशीनी इंजेक्शनों के द्वारा
खींचा जा रहा है धरती का सफ़ेद कल-कल बहता ख़ून

पर्यावरण-प्रदूषण नहीं
हम अपनी बदनीयती की कालिख़ कार्बन के साथ
उड़ेल रहे हैं प्रकृति सुन्दरी के सुन्दर खाली फेफड़ों में

बाँध नहीं हम नदी की इच्छाओं को रोक रहे हैं
उसके नैसर्गिक वेग के साथ

धरती अपने सन्तति मोह और प्रेम के बन्धन में
बँधी हुई असहाय खड़ी है
हमारे व्यसनों और अपराधों की क़ीमत चुकाती हुई
और हम द्रोपदी की तरह उसे निर्वस्त्र करने पर उतारू हैं ।