धरती माता है, माता है / श्यामनन्दन किशोर
दिन-दिन भर हल-बैल चलाकर
तुमने जिसकी छाती तोड़ी,
रत्न-सुगर्भा जान लूटने-
चला कुदाली, परती कोड़ी,
तुमने अपनी प्यास बुझाने,
जिसकी सारी देह निचोड़ी,
हो कितने बेशर्म, अगर हो
उसकी तुम्हें न ममता थोड़ी!
सब दुख सहा, न कुछ भी कहा, कि मिट्टी फसल उगाती सोना!
तुम रौंदो चरणों से वह तो देगी फल-फूलों का दोना!
आज हिमालय की चोटी पर बैठ हमारा कवि गाता है-
एक बार तो लो पुकार तुम, धरती माता है, माता है!
धरती एक किताब कि जिसमें
फल-फूलों के छन्द मनोहर!
हर मौसम गुलज़ार कि जिसमें
फल-फूलों की कान्त धरोहर!
भू की व्यक्त उमंग यही हैं!
भू गे सातों रंग यही हैं!
पुष्पबाण वाले, मतवाले
भू के रसिक अनंग यही हैं!
मानव की चोटों पर शबनम की आँखों से आता रोना।
फल-फूलों के मिस मुस्काकर प्रकृति कर रही जादू-टोना!
आज हिमालय की चोटी पर बैठ हमारा कवि गाता है-
एक बार तो लो पुकार तुम, धरती माता है, माता है!
नये देश की ओ माँ-बहनो!
क्यों सोने की बेड़ी पहनो?
रंग-बिरंगे फूलों का तुम
धारो शोभित-सुरभित गहना!
नैसर्गिक शृंगार पुरुष के
पास प्रकृति को ला देता है!
स्वर्ण-मोह से घिरे हृदय की
अग्नि-परीक्षा ले लेता है।
त्याग दीप है जो करता ज्योतित अन्तर का कोना-कोना!
नये देश के लिए चाहिए सबको खून-पसीना बोना!
आज हिमालय की चोटी पर बैठ हमारा कवि गाता है-
एक बार तो लो पुकार तुम, धरती माता है, माता है!
(17.7.61)