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धरती यह माँ की... / धनंजय वर्मा
Kavita Kosh से
गोद भी तो नहीं रही
माँ की यह धरती
दूर-दूर तक, तार-तार हो गया है
वह हरा-भरा आँचल
जाने कहाँ समा गई
उमगते वक्ष से, पहाड़ों से
फूटती नद्दियों की वह दुग्ध धवल धार।
आती है फिर भी बार-बार क्यों पुकार।
कभी भाई, फिर कभी, बेटी के बहाने
आने और जाने की यह गति चक्राकार !
क्यों होती जाती दुर्निवार।