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धरती रुप अपार / अवधेश कुमार जायसवाल

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हरा रंग केॅ चादर ओढ़ी धरती तापै धूप,
बदरा टुकुर-टुकुर झांकै छै, निरखै रुप अनूप।
नागिन सन लत्तड़, लट लटकल, रंग-विरंगा फूल,
भंवरा चिपकल फूल-फूल पर, मधु पान मसगूल।
झर-झर झरना गीत सुनाबै, कल-कल नदिया पाव पखारै
तोता झूलै बांही पकड़ी केॅ, तितली नाच देखाबै।
मंद पवन सन झुमका पत्ता डोलै, पेड़-पेड़ लै अंगड़ाई,
उत्तंुग शिखर हिमगिरि उरोज सन, शोभा नै कहलोॅ जाय।
बछड़ा कुलचै, गोदी बलकबा, हुलसी पीयै दूध
देखि जगत केॅ रुप, सप्तरिषि भुललै आपनोॅ सुध।
बादल छिपि-छिपि चाँद निहारै, धरती सुतलोॅ निढाल
देखि धरा केॅ रुप देवता, आबै लेॅ बेताब।
जुगनू तारा सें बतियाबै, झूमै छै कचनार,
सागर तट पर नौका नाचै, धरणी छटा अपार।