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धरती / दीनानाथ सुमित्र

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यह धरती मुझको तो लाल अधर लगती है
मीन सरीखी आँखों-सी सुंदर लगती है
 
कभी चाँद की किरणों जैसी शीतल-शीतल
कभी- कभी अनगिनत सितारों-सी लगती है
छोड़ उदासी, हर्षित रहती बच्ची सी
कभी नदी की सजल किनारों सी लगती है
कभी छींट की साड़ी लाल चुनर लगती है
यह धरती मुझको तो लाल अधर लगती है
मीन सरीखी आँखों-सी सुंदर लगती है
 
यह धरती माँ-सी, बेटी जैसी लगती है
यह धरती लगती है ज्यों माथे की बिंदिया
कभी-कभी लगती है यह पाँवों की पायल
कभी मुझे यह लगती है आँखों की निंदिया
कभी मुझे अपने बाबुल का घर लगती है
यह धरती मुझको तो लाल अधर लगती है
मीन सरीखी आँखों-सी सुंदर लगती है
 
यह धरती सागर की ऊँची लहरों-सी है
यह मीठी है नारकेलि के पानी जैसी
पढ़ते-पढ़ते जिसे स्वप्न आने लगता है
स्वर्णमयी रस वाली प्रेम कहानी जैसी
इसीलिए यह बेहतर से बेहतर लगती है
यह धरती मुझको तो लाल अधर लगती है
मीन सरीखी आँखों-सी सुंदर लगती है