धरती / सुभाष राय
धरती में अब बहुत कम
बची रह गई है धरती
देह पर अनगिनत ज़ख़्म गहरे
खून रिस रहा लगातार
जूझ रही मौत से
पटरियों पर भाग रहीं रेलगाड़ियाँ
आसमान में उड़ते विमान
बस, ट्रक, कारें और साइकिलें
सब बने हैं धरती का कलेजा फाड़
निकाले गए इस्पात से
खेत-खलिहानों का दम घोंटते
शैतान की तरह गाँवों को निगलते
कँक्रीट के भयानक जँगल
खड़े हो रहे धरती की टूटी हुई हड्डियों पर
सब मानवद्रोही दुष्ट मिलकर
दिन-रात ताक़तवर पम्पों से
खींच रहे धरती का ख़ून
थोड़ा पी रहे और थोड़े से बारूद बना रहे
विरोधियों के सफ़ाए के लिए
धरती के फेफड़ों में काला धुआँ भरते हुए
बेटे ही जुटे चीरहरण में
खींचतान में फट गई है हरी साड़ी
नँगी हो गई है माँ
पेड़ों की बाँहें, जाँघें काटकर ले जा रहे
नराधम अपने ड्राइँगरूमों में
पहाड़ों का सिर तोड़कर
फ़र्श पर बिछा रहे
नदियों के पेट में ठूस रहे
प्रगति और विकास का कचरा
साधनों, संसाधनों की सिद्धि के लिए
लड़ते, मरते-मारते नरपिशाचों के
अकथ पापोत्सवों में
बेतरह जल रही ऊष्मा धरती की
ठण्डी पड़ रही जीवनदायिनी धीरे-धीरे
सिसक रही है घायल माँ
मवाद भर गया है घावों में
फफोले उभर आए हैं स्निग्ध तन पर
काँपते, कराहते अन्तरिक्ष में
क्रोध का बवण्डर जन्म ले रहा
जँगल रह-रह कर जल उठता है
पीड़ा की आग में, बुझाए नहीं बुझता
जगह-जगह ज्वालामुखी फट रहा
अँगारे बरसता, सब कुछ स्वाहा करता
दहकते लावे की नदी बनकर
बहता शहरों, बस्तियों में
गरज रहा सागर, वेगवती लहरें
चढ़ी आ रहीं गगनचुम्बी इमारतों पर
डूब गये सकल समृद्धि सहित कई द्वीप
घिरे हैं चमचमाते शहर भयभीत असहाय
सूरज उगल रहा फेन किरनों का ज़हरबुझा
अन्तरिक्ष के प्रबल अभेद्य कपाट तोड़
चलीं आ रही मारक रश्मियाँ धरती की ओर
बादल दहाड़ रहा गगन में घनघोर
पगलाया-सा पटक रहा पहाड़
अज्ञानी, सम्वेदनहीन नीचों के सिर पर
ग्लेशियर पलट रहा शहरों पर
तपते रेगिस्तान में जम रही बर्फ़
बर्फ़ में उग रहे फूल ज़हरीले काँटों भरे
आदमी की भूख बढ़ गई है अनन्त अघोर
विकराल दाँतों में दबाए धरती को
चर्र-चर्र चबा रहा मिट्टी में छिपा
स्वाद, गन्ध, रूप, रँग सारा
लोहा, शीशा, हीरा, पारा
भूखा ही रहेगा वह धरती को निगलकर भी
कटे सिर वाले दैत्य-सर्प की तरह
निगलेगा पाँवों की ओर से ख़ुद ही को
उलट-पलट, उथल-पुथल
मचनी है प्रलय घोर
बढ़ रहा तापमान मौसम का
ज़्यादा, और ज़्यादा, बहुत ज़्यादा
बस कुछ ही बरस बचे और
शेष रह जाएगा सांय-सांय सन्नाटा ।