धरा करवट बदलती है / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
कभी कुछ टूटकर
कहीं और जुड़ जाता है
वहाँ से कुछ छूटकर
कहीं और मुड़ जाता है
लुप्त हो जाती हैं प्रजातियाँ
बदल जाता है पर्यावरण
होते हैं स्थानांतरण
बगैर यात्रा के भी
बगैर भाषा के भी
विचार होते हैं
बगैर संवाद के भी
शब्द होते हैं
जैसे-जैसे तिरछी होती जाती है धरा
सीधा होता जाता है मानव
धरा करवट बदलती है
रेगिस्तान हो जाते हैं जलमग्न
समुद्र बदल जाते हैं रेगिस्तान में
कभी एक वक्ष ऊपर
कभी दूसरा वक्ष ऊपर
पिघल जाते हैं ग्लेशियर
जम जाता है जल
अनंत तक दिखाई देता है
लौट आती है फिर दृष्टि
नस्लें चमकती हैं
फीकी पड़ जाती हैं
सब-कुछ घुला-मिला
सदियों में जाकर बदलता है
देखते हो जो आज
नहीं देख पाओगे जब
ये भी बदल जायेगा
कितने स्वप्नों को इकट्ठा करोगे
कितने जीवन
गुजरते रहते हो जिनसे बार-बार
एक ही समय में तीनों काल
सब-कुछ तुम्हारे सामने बिछा है
तुमने बंद कर ली हैं आँखे
समय तो झपटेगा,
करेगा इकट्ठी हड्डियाँ
पहनेगा बनाकर हार
धरा की चक्की में
चिल्लाती हैं हड्डियाँ भी पिसती हुई
चूर-चूर होते हुए
बनेंगे कई यौगिक, कार्बन
कुछ अँधियारे, कुछ चमकारे
निकालोगे फिर बड़े-बड़े दैत्यों से
धरा की नसों से बहता खून
पानी तो वैसे ही ऊपर है
बह रहा है आँसुओं-सा
हर तरफ शोर, प्रदूषण
इधर खनिज निकालते हो
उधर कचरा डालते हो
लगातार बढ़ती आबादी
कूड़ा ही तो बढ़ाती है
जब भी असहनीय हो जाता है बोझ
दायें या बायें
धरा करवट बदलती है।