धरा कहे पुकार के / मधुछन्दा चक्रवर्ती
धरा कहे पुकार के,
हे मानव! सुन जरा।
ये धरती तेरी है,
तु है इस धरती का।
फिर क्यों तू अपने स्वार्थ में,
इसे नष्ट करने पर तुला है?
अपनी उन्नति के चक्कर में
वर्षों की मेहनत को काट रहा है?
न वन बचे हैं, न बाग
तूने फैलाया है, उन्नति के नाम पर आग।
नदियों का पानी दूषित,
मिट्टी हो रही है पतित,
हवा में विष घोल रहा है तू,
फिर भी दोषी प्रकृति? रे भ्रमित।
उन्नति के रास्ते ये धरती देती थी खोल,
जब-जब तूने चाहा, बोल?
तेरी भूख मिटाने को इसने कितने मिठे फल दिए
मगर तूने इसके गर्भ में ही अब ज़हर है घोल दिए।
इसे उकसा कर तूने स्वयं विनाश को दिया न्योता,
अब निपटने के लिए लगा रहा है तू गोता।
ज़रा सोच तूने जो कभी इसकी फ़िक्र की होती,
ज़रा सोच तूने जो कभी इसका भी दिल देखा होता,
आज तेरी ये दुर्गत न होती,
ये धरती तेरी ही होती
तू इसका होता।
सुन्दर-शष्य-श्यामला होती,
अंतरिक्ष की ये मोती,
तेरा घर अब सच में हर-भरा होता,
न तुझे फिर किसी दूसरे ग्रह की,
खोज में कही जाना होता।