धरा की पुकार / श्वेता राय
क्या करूँ क्या ना करूँ मैं, सोचती घायल धरा।
खून से सींचा जिसे वो, पुत्र मेरा क्यों मरा॥
हाय! नियती क्या कहूँ अब, मृत्यु उपसंहार है।
चीर तन का फट रहा है, अश्रु क्यों व्यापार है॥
कांपती है रूह मेरी, चेतना थिरती नहीं।
पीर पर्वत से बड़ी बन, आँख से गिरती नहीं॥
ये विकट है काल कैसा, गूँजता है हास क्यों।
गोद माँ की है उजड़ती, कर रहा परिहास क्यों॥
क्या कहूँ अब कर्म इनका, धर्म इनका है नहीं।
मर्म भी अब मर गया है, शर्म इनको है नहीं॥
क्षीर माँ का भूल कर जो, हैं नही इंसान अब।
घोल कर विष अब जहन में, बन गये शैतान अब॥
छूरियाँ इनके नज़र की, भेदती छाती मेरी।
धैर्य मेरा खो रहा है, खो रही थाती मेरी॥
है परीक्षा अब समय की, है परीक्षा काल की।
है समीक्षा वीरता की, तेग के ललकार की॥
अब सुदर्शन चक्र वीरों, हाथ में धारण करो।
काट कर शिशुपाल माथा, खून से पारण करो॥
मत सहो अब पुत्र मेरे, वार इक भारी करो।
मार कर अब शत्रु सारे, शीश चरणों में धरो॥
भूमि का वंदन करो...