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धरा के बारे में / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
Kavita Kosh से
तपती है धरा
दिन भर
जाने किसके लिए
उसने पाना नहीं जाना कभी
बिल्कुल माँ की तरह
बस खोया है
अपना सुंदर रूप-रंग, आकार
जानती है वह
पल-पल खोते-खोते
मिट जाएगी एक दिन
इस ब्रह्माण्ड में
फिर भी उसे अच्छा लगता है
मिट जाना
शायद उनके लिए
जो उनके अहसानों से बेफ़िक्र
याद नहीं रख पाते
उसका नाम
या यह अहसास
कि बीमार भी हो सकती है
दिन-रात खटनेवाली बूढ़ी माँ!