भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरा / संगम मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अर्णव पद प्रक्षालन करता,
पवन थकान उतारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे॥

कहीं धवल हिमखण्ड लदे हैं,
जन-जीवन रस भर कर।
निर्मल नदियाँ लहराती हैं,
मृदु जलधारा बनकर।
फलित हो रहा है जन-गण,
प्रेमिल शीतल छाया में।
प्राणवायु भर रहा समीरण,
सन सन-सन सन चलकर।

पावन वक्षामृत देकर,
सबको निःस्वार्थ सँवारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे॥

सारे ग्रह-गोचर नित-नित,
श्रद्धा से शीश झुकायें।
सुर गण भी गायन प्रशस्ति के,
स्वागत में नित गायें।
चन्दा की शीतल किरणों में,
मनहर रूप झलकता।
लज्जित हो जातीं सन्मुख,
वर्णित सारी उपमायें।

सूरज नित स्वर्णिम किरणों से,
अद्भुत रूप निखारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे।

मृदुल अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुशोभित,
अनुपम छवि दिखलाते।
कहीं हरित वन झूम झूम,
स्वागत में हैं लहराते।
मरु से उड़ते रेत नवल-
नर्तन प्रस्तुत करते हैं।
कहीं गगनचुम्बी भूधर,
अतुलित सम्मान बढ़ाते।

शान्तिदूत बन नभ में उड़ते,
नीरद उजरे-कारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे॥

जन-जीवन अङ्कुरित हो रहा
है विकसित क्यारी में।
विविध रङ्ग के सुमन खिले हैं,
सुरभित फुलवारी में।
क्षण में कोटि सर्जन होता है,
दिव्य मनोहर तन से।
प्रति पल उल्लासित नूतन,
शिशुओं की किलकारी में।

रैन-दिवस जागृत रहकर,
सबको अनवरत दुलारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे॥

जन-जन के अनुरूप योग्य-
आवश्यक जीवन देती।
आयु पूर्ण होने पर अन्तर्निहित,
पुनः कर लेती।
अगणित देव समाहित हैं,
इस स्नेहिल विस्तृत उर में।
एकनिष्ठ हो जग-जन का,
जीवन-नौका है खेती।

देवि! कोटिशः नमन कर रहे,
सुर-नर-मुनि-जन सारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे॥

अर्णव पद प्रक्षालन करता,
पवन थकान उतारे।
गगन मिलन को लालायित है,
अपनी भुजा पसारे॥