धरित्री / बसन्तजीत सिंह हरचंद
क्या आपकी शिराओं में
रक्त के बहाने
माँ का दूध नहीं बह रहा ?
यह अकाट्य सत्य है
कि प्रत्येक माता
अपने अबोध शिशु को
छाती का रुधिर पिलाकर
बड़ा करती है ।
आपने
उस युवती को देखा होगा
शिशु के मरने के बाद
जिसकी वत्सलता ,
हृदय में उमड़- घुमड़कर
युवा स्तनों की राह
बह निकलती है ,
और
उसकी चोलियाँ
भिगो देती है ।
माँ --- केवल शब्द नहीं
एक अनुभूति है ,
जिसकी अँगुली थाम कर
विश्व ने
चलना सीखा ।
अपने पुत्रों को
भूख से बिलखता देख.
धरती की छातियों से
विह्वल धाराओं में
फूट पड़ने वाला
दूध ही तो है ;
आपने धरती को
जब भी देखा
एक माँ ही देखा होगा ,
पर मैंने
माँ को
धरती देखा है ।
माँ जन्म ही नहीं
जीवन भी है ,
शिशु का आकर्षण ही
इस देव - नदी - देवी को
पृथ्वी पर खींच लाया ,
माता तो जग की
ग्रीष्म दुपहरियों में
शीतल छाता है ।
ब्रह्मांड का जन्म
सर्वप्रथम जननी के
हृदय में हुआ था ,
माँ ब्रह्म नहीं
धूप है
पवन है
पानी है
क्या माँ के बिना
सृष्टि की सृष्टि सम्भव थी ?
(समय की पतझड़ में , १९८२)