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धरे हथेली गाल पर / शलभ श्रीराम सिंह

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धरे हथेली गाल पर
सोच रहा हूँ कल की बातें- गए वर्ष की कुछ तस्वीरें
झूल रहीं दीवाल पर !
धरे हथेली गाल पर...!

हवा खिड़कियों के परदों पर छिटके गंध बबूल की ।
रोशनदान घुट रहे सारे- कई दिनों से गुलदस्तों पर-
पर्त जमी है धूल की।
बिस्तर पर सिलवटें, सिलवटों पर सिगरेट की छाई
हाथ उठाऊँ, इसके पहले ठमक गई है- दीठ किसी के-
नाम कढ़े रुमाल पर।
धरे हथेली गाल पर...।

गए क्षणों की पगध्वनियों को झेल रहा है कुहरा
मैं आवाज़ लगाने को हूँ- दिया सांझ का मना कर रहा-
कहता ठहर, न गुहरा !
देख कि कल तक घुटनों के बल चलने वाला चाँद
आज बाँटने स्वप्न रुपहले-क्षितिजों के झुरमुट से उभरा
ठण्डी हँसी उछालकर।
धरे हथेली गाल पर...।

थम-सा गया आज कल मन का दूर-दूर तक जाना।
बहुत भला लगता है अब तो- उकड़ूँ बैठे हरी घास पर-
अपने को दुहराना ।
काश कि कोई आकर मुझसे फिर न कभी कुछ कहता
नन्हा तिनका लिए हाथ में- यों ही जीने की तबियत करती है
पूरे साल भर।
धरे हथेली गाल पर...।