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धर्मकाँटे पर हड़बड़ी / सरोज कुमार

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धर्मकाँटे पर
अपना बोरा तुलते ही
बोला वह:ठहरो,
यह वजन कम है,
रहने दो बोरा काँटे पर!
अभी आता हूँ!
छूट गया लगता है कुछ माल कहीं,
लाता हूँ!

धर्मकाँटे ने पूछा
क्या है बोरे में ऐसा?
क्यों ऐसे हड़बड़ी?
उसने जल्दी में बतलाया,
इसमें हाथ हैं हाथ!
मेरे समर्थन में वाले
निर्णायक हाथ!
प्रजातन्त्र की गेंद झेलने वाले
सिंहासन का खेल खेलने वाले
हाथ!
शेष अभी लाता हूँ!
ये गया और वो आता हूँ!

इधर वह गया
उधर आ पहुंचा दूसरा
धर्मकाँटे ने उसे ठहरने को कहा
और बतलाया पहले के बारे में
कि वह छूटा हुआ
कम पड रहा माल लेने को दौड़ा है
आता ही होगा!
अचम्भा भी प्रकट किया,
कैसा जमाना आ गया है
आने लगे हैं
हाथों से भरे हुए बोरे भी तुलने ........

कि दूसरा काँप उठा! बोला:
उसका बोरा उतार दो
पहले मेरा तौल दो!
मेरे पास वक्त्त नहीं है खोने को!

धर्मकाँटे ने पूछा:
ऐसी क्या जल्दी है?
क्या लाए हो आलू?
सिंगदाना, मछलियाँ?

वह अधीर था, झट बोला:
आलू-वालु नहीं, न मछलियाँ
इसमे भी हाथ है!
मेरे समर्थन में
उठने वाले हाथ!

धर्मकाँटे ने
आश्चर्य से आंखे फाड़ी!
दूसरे ने फिर कहा:
वह पहला
जल्दी लौट नहीं सकता है!
वह जिस माल को
लेने को दौड़ा है,
उसको भ्रम है कि वो उसका है!
वह तो मेरे बोरे में बन्द है.........
इसी में!
उसका उतार कर
मेरा तौल दो!
खोने को
बिल्कुल वक़्त नहीं है मेरे पास!