धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र / ओम पुरोहित ‘कागद’
स्वघोषित उदेश्यों को
प्रतीक मान
मन चाहे कपड़ों से निर्मित ध्वज
दूर आसमान की ऊंचाईयों में-
फहराने भर से
लोकतंत्र की जड़ें
भला कैसे हरी रहेंगी ?
तुम शायद नहीं जानते
भरे बादल को
पेट का प्रतीक मान लेने से
यह पंचभूता नहीं मानता
पानी के समय पानी
रोटी के समय रोटी
सक्षात मांगता है।
शांति का प्रतीक
टुकड़ा भर सफेद कपड़ा
बरसों बाद भी
मुठ्ठी भर देश को
चैन-ओ-अमन
कहां दे पाया है ?
हरित क्रांति का प्रतीक
तुम्हारा हरा रंग
आयात से चलकर
निर्यात तक
कहां पहुंच पाया है ?
....और अड़तीस साल बाद भी
तुम्हारी राष्ट्रीयता को
निष्ठा
और
बहादुरी के रंग में
कहां रंग पाया ?
हां, यह जरुर है
तुम्हारा केसरिया
रंग लाया है
तभी तो
हर देशवासी
बे-ईमानी भ्रष्टाचार
भूखमरी
गरीबी
बे-रोजगारी
और
देशद्रोह के रंग में
आकंठ रंग गया है
और इनके समक्ष
बलिदान के लिए
हिम्मत के साथ
डटा हुआ है।
चौबीस तीलियों वाला-
धर्म-चक्र आज भी
साम्प्रदायिकता की गाड़ी
उत्तर से दक्षिण
पूर्व से पश्चिम तक
कितनी बे-शर्मी से ढो रहा है,
और तुम्हारा लोकतंत्र
तिरंगा ओढ़
धर्म निर्पेक्षता की
झूठी
गहरी
नींद सो रहा है।